सीट-बंटवारा : बिहार-झारखंड में महागठबंधन की एकता कहाँ फिसल रही है ?

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 पूनम शर्मा
भारत की राजनीति में चुनावी मौसम जितना उत्सव का होता है, उतना ही यह समय राजनीतिक गठबंधनों के भीतर अंतर्विरोधों का आईना भी बन जाता है। बिहार और झारखंड में महागठबंधन (INDIA Alliance) का यही चेहरा इन दिनों चर्चा में है — जहाँ सीट-बंटवारे को लेकर भीतरखाने जो असहमति है, वह अब खुलकर सतह पर आ चुकी है। कभी “एकजुट विपक्ष” का नारा देने वाला यह गठबंधन अब खुद अपनी एकता पर सवालों के घेरे में है।

 भरोसे की कमी: गठबंधन का पहला दरार बिंदु

किसी भी गठबंधन की नींव ‘भरोसे’ पर टिकी होती है। लेकिन बिहार-झारखंड के मैदान में यह भरोसा डगमगाता दिखाई दे रहा है। महागठबंधन के बड़े नेता भले मंचों से ‘एकता’ का संदेश दें, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं और संभावित प्रत्याशियों में भ्रम की स्थिति है।
कई सीटों पर महागठबंधन के घटक दल एक-दूसरे के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते दिखे हैं। कहीं कांग्रेस और राजद (RJD) के कार्यकर्ता आमने-सामने हैं, तो कहीं झामुमो (JMM) और कांग्रेस के बीच टिकट वितरण को लेकर तनातनी। नतीजा यह कि मतदाताओं तक यही संदेश जा रहा है कि विपक्ष खुद अपने घर को व्यवस्थित नहीं कर पा रहा।
यह स्थिति चुनावी गणित के लिहाज़ से भी घातक है, क्योंकि जहाँ-जहाँ गठबंधन के दो प्रत्याशी आमने-सामने होंगे, वहाँ सीधा लाभ एनडीए (NDA) को मिलना तय है।

छोटे दलों की नाराज़गी: VIP और अन्य सहयोगियों की ‘सीट-पॉलिटिक्स’

महागठबंधन में छोटे और मझोले दल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के प्रमुख मुकेश सहानी इसका प्रमुख उदाहरण हैं। सहानी ने अपनी पार्टी के लिए “सम्मानजनक सीट हिस्सेदारी” की मांग की, लेकिन बात जब बनी नहीं, तो उनके गठबंधन छोड़ने की खबरें फैलने लगीं।
यही नहीं, झारखंड में भी कांग्रेस और झामुमो के बीच सीटों की संख्या पर असहमति ने तनाव बढ़ाया है। झामुमो मानता है कि राज्य की राजनीति में उसका जनाधार अधिक है, इसलिए उसे बड़ी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, जबकि कांग्रेस अपने पारंपरिक मतदाता वर्ग का हवाला देती है।
इन तमाम समीकरणों में यह स्पष्ट है कि महागठबंधन का “जोड़ीदार प्रबंधन” कमजोर पड़ गया है। छोटे दल जो कभी गठबंधन की मजबूती का प्रतीक थे, अब असंतोष के केंद्र बनते जा रहे हैं।

संदेश की अस्पष्टता और जनता का भ्रम

राजनीति केवल संख्या का खेल नहीं, बल्कि धारणा का निर्माण भी है। जब गठबंधन के नेता एक स्वर में नहीं बोलते, तब जनता के बीच भ्रम फैलता है। एक दिन कोई बड़ा नेता कहता है कि “सभी दल एकजुट हैं,” और अगले ही दिन कोई छोटा सहयोगी दल यह बयान दे देता है कि “हमें न्यायसंगत हिस्सेदारी नहीं मिली।”
यह विरोधाभास सिर्फ मीडिया की सुर्खियाँ नहीं, बल्कि गठबंधन की विश्वसनीयता पर चोट है। आम मतदाता सोचता है — जो दल आपस में तालमेल नहीं बैठा पा रहे, वे सत्ता में आने के बाद जनता के मुद्दे कैसे सुलझाएँगे? यही भ्रम एनडीए के लिए चुनावी अवसर बन जाता है।

 रणनीतिकारों की भूमिका और सार्वजनिक टकराव

महागठबंधन के भीतर केवल राजनीतिक दल नहीं, बल्कि रणनीतिक चेहरे भी हैं — चुनावी मैनेजर, डेटा एनालिस्ट, मीडिया सलाहकार। लेकिन हाल के दिनों में इन रणनीतिकारों के बीच मतभेद भी सुर्खियाँ बने हैं। कुछ ने खुलकर गठबंधन के भीतर की खींचतान पर बयान दिए, तो कुछ ने सोशल मीडिया पर अप्रत्यक्ष टिप्पणियाँ कीं।
यह स्थिति “प्रशांत किशोर मॉडल” जैसी रणनीतिक एकरूपता को कमजोर करती है। राजनीति में जब संदेश की दिशा बिखर जाती है, तब सबसे ज़्यादा नुकसान जमीनी प्रचार को होता है। मतदाता यह महसूस करने लगता है कि गठबंधन में एक नेतृत्व नहीं, बल्कि कई केंद्र हैं — और हर कोई अपनी लाइन खींच रहा है।

 जातीय-सामाजिक समीकरणों की अनदेखी

बिहार-झारखंड की राजनीति में जातीय और स्थानीय समीकरण अब भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। महागठबंधन के भीतर यह आरोप ज़ोर पकड़ रहा है कि सीट-बंटवारे में कुछ समुदायों को प्राथमिकता दी गई, जबकि कुछ की अनदेखी हुई।
मल्लाह, कुर्मी, यादव, मुसहर या दलित समुदाय — इन सबके स्थानीय प्रतिनिधि चाहते हैं कि टिकट वितरण में उनकी ‘वॉइस’ सुनी जाए। लेकिन जब उन्हें लगता है कि दिल्ली या पटना के बड़े नेता ऊपर से फैसले थोप रहे हैं, तो स्थानीय संगठन कमजोर होता है।
ट्रांसक्रिप्ट में जिस तरह “हमें छह सीट भी नहीं दी जा रही” या “हमारी ज़रूरत ही नहीं समझी गई” जैसी बातें सामने आईं, वे बताती हैं कि गठबंधन ग्राउंड-लेवल प्रबंधन में पिछड़ रहा है।

भविष्य की रणनीति: दो रास्ते, एक चुनौती

अब सवाल है — महागठबंधन इस संकट से कैसे निकले? इसके पास दो ही रास्ते हैं।
पहला — स्पष्टता और अनुशासन का रास्ता। सभी दल मिलकर जल्द से जल्द सीट-बंटवारे की घोषणा करें, संयुक्त प्रचार रणनीति बनाएं, और ज़मीनी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट दिशा दें। इससे संगठनात्मक अनुशासन लौटेगा और जनता को भरोसा मिलेगा कि गठबंधन गंभीर है।
दूसरा — खुली प्रतिस्पर्धा का रास्ता। यदि समन्वय संभव नहीं है, तो गठबंधन “लोकल-लेवल समझौते” के आधार पर लचीली रणनीति अपनाए, यानी हर क्षेत्र में प्रभावशाली उम्मीदवार को बढ़त दिलाने के लिए स्थानीय समीकरणों पर भरोसा किया जाए। लेकिन यह रास्ता जोखिम भरा है, क्योंकि इससे मतदाताओं के बीच भ्रम और विरोधाभास दोनों पैदा होंगे।

 निष्कर्ष: एकता या असमंजस की राजनीति ?

महागठबंधन की मौजूदा स्थिति यह बताती है कि विपक्ष के पास विचार और नीतिगत मुद्दे तो हैं, लेकिन संगठनात्मक सामंजस्य की कमी है।
अगर गठबंधन सचमुच यह चाहता है कि भाजपा-एनडीए के सामने एक सशक्त विकल्प बने, तो उसे सबसे पहले अंदरूनी संवाद और पारदर्शिता बहाल करनी होगी।
राजनीति में नारा तभी असरदार होता है जब उसके पीछे सामूहिक विश्वास हो। “हम साथ हैं” कहने से पहले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि भीतर कोई एक-दूसरे के खिलाफ़ नहीं खड़ा है।
अगर यह कोलाहल समय रहते थमा नहीं, तो बिहार-झारखंड में विपक्ष की एकता केवल भाषणों में रह जाएगी — और मैदान में ‘महागठबंधन’ की जगह ‘महाविरोधाभास’ नजर आएगा।

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