पूनम शर्मा
दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि यदि कोई संपत्ति पति-पत्नी के संयुक्त नाम पर खरीदी गई है, तो केवल इस आधार पर पति उस पर अपना विशेष अधिकार नहीं जता सकता कि उसने ही बैंक की ईएमआई (किस्तें) चुकाई थीं।
यह टिप्पणी हाल ही में न्यायमूर्ति अनिल क्षेतरपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान की।
संयुक्त नाम पर संपत्ति, समान अधिकार
अदालत ने कहा, “एक बार जब संपत्ति पति-पत्नी दोनों के नाम पर दर्ज हो जाती है, तो पति को केवल इस आधार पर विशेष स्वामित्व का दावा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि पूरी खरीद राशि उसने चुकाई थी।”
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसा दावा बेनामी संपत्ति लेन-देन (निषेध) अधिनियम की धारा 4 का उल्लंघन होगा। यह धारा उस व्यक्ति को रोकती है जो स्वयं को वास्तविक मालिक बताकर उस व्यक्ति के खिलाफ अधिकार जताना चाहता है, जिसके नाम पर संपत्ति दर्ज है।
पत्नी का दावा: अर्धांश स्त्रीधन
इस मामले में पत्नी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि संयुक्त संपत्ति से प्राप्त अधिशेष राशि का 50 प्रतिशत हिस्सा उसका है। उसने यह भी दलील दी कि यह राशि उसके स्ट्रिधन (हिंदू कानून के अनुसार स्त्री की पूर्ण और विशेष संपत्ति) का हिस्सा है, जिस पर उसका अकेला अधिकार बनता है।
याचिका के अनुसार, दंपति का विवाह वर्ष 1999 में हुआ था और 2005 में उन्होंने मुंबई में संयुक्त रूप से एक फ्लैट खरीदा। लेकिन 2006 में दोनों अलग रहने लगे और उसी वर्ष पति ने तलाक की अर्जी दायर कर दी।
पति के दावे को कोर्ट ने खारिज किया
अदालत ने कहा कि प्रावधान साफ़ तौर पर कहता है कि कोई भी व्यक्ति उस संपत्ति पर वास्तविक स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता, जो किसी और के नाम पर दर्ज हो।
पीठ ने आगे कहा, “पति-पत्नी के संयुक्त नाम पर संपत्ति होने पर कानून का अनुमान यही है कि दोनों ने मिलकर उसमें योगदान दिया है, चाहे एक की आय न भी हो। विवाह के दौरान खरीदी गई संपत्ति को सामान्यत: पारिवारिक संयुक्त निधि से खरीदी गई माना जाता है।”
इसलिए पति यह नहीं कह सकता कि चूँकि किस्तें उसने दीं, इसलिए संपत्ति पूरी तरह उसकी है।
संपत्ति बिक्री और विवाद
विवादित संपत्ति, मुंबई का फ्लैट, जिसे दोनों ने मिलकर खरीदा था, बैंक द्वारा बेच दिया गया। इसकी बिक्री से 1.09 करोड़ रुपये प्राप्त हुए और यह राशि संयुक्त बैंक खाते में जमा की गई।
परिवार न्यायालय ने इस राशि को पति के पक्ष में जारी करने का आदेश दिया था। इस आदेश को पत्नी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी।
पत्नी का 50% हिस्सा तय
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि पत्नी को इस संयुक्त संपत्ति से प्राप्त राशि में 50 प्रतिशत का अधिकार है। अर्थात, पत्नी को 54.5 लाख रुपये मिलेंगे।
अदालत ने यह भी माना कि पति का यह तर्क कि केवल उसने किस्तें भरी थीं, कानूनी रूप से स्वीकार्य नहीं है।
तलाक याचिका भी खारिज
दिल्ली हाईकोर्ट ने न केवल संपत्ति विवाद पर फैसला दिया, बल्कि पति की तलाक याचिका को भी खारिज कर दिया। पति ने पहले पत्नी पर क्रूरता (cruelty) का आरोप लगाकर तलाक मांगा था और बाद में इसमें परित्याग (desertion) का आधार भी जोड़ा। लेकिन अदालत ने इन दलीलों को स्वीकार नहीं किया और पति की तलाक अर्जी खारिज कर दी।
भरण-पोषण जारी रहेगा
इसके साथ ही अदालत ने परिवार न्यायालय के उस आदेश को भी बरकरार रखा जिसमें पति को पत्नी को प्रति माह 2 लाख रुपये भरण-पोषण (maintenance) देने का निर्देश दिया गया था।
फैसला क्यों महत्वपूर्ण?
यह निर्णय इसलिए अहम माना जा रहा है क्योंकि भारतीय समाज में अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि यदि पति ही कमाता है और किस्तें चुकाता है, तो संपत्ति पर उसका विशेष स्वामित्व बनता है। लेकिन हाईकोर्ट ने साफ़ कहा कि विवाह के दौरान खरीदी गई संयुक्त संपत्ति पर दोनों का समान अधिकार है, चाहे पत्नी आर्थिक रूप से योगदान न कर रही हो, फिर भी वह कानूनी तौर पर बराबर की हिस्सेदार है।
निष्कर्ष
दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश ने स्पष्ट कर दिया है कि पति अपनी पत्नी को केवल गृहिणी होने की वजह से संपत्ति अधिकार से वंचित नहीं कर सकता। विवाह एक साझेदारी है और उसमें अर्जित संपत्ति भी साझा होती है। यह फैसला आने वाले समय में उन तमाम मामलों के लिए मिसाल बनेगा, जहाँ पत्नियाँ अपने वैवाहिक अधिकारों और स्ट्रिधन को लेकर अदालत का दरवाज़ा खटखटाती हैं।