पूनम शर्मा
राजस्थान के झाड़ोल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ने हाल ही में एक ऐसी खबर के कारण सुर्ख़ियाँ बटोरीं जिसने स्वास्थ्य विभाग को भी चौंका दिया। यहाँ 55 वर्षीय आदिवासी महिला रेखा गलबेलिया ने अपने 17वें बच्चे को जन्म दिया। डॉक्टरों के लिए यह न सिर्फ़ आश्चर्यजनक था बल्कि इसने दक्षिण राजस्थान के आदिवासी इलाक़ों में अत्यधिक प्रजनन दर और मातृ-शिशु स्वास्थ्य जोखिम के गंभीर मुद्दे को सामने ला दिया।
रेखा गलबेलिया का मामला इस बात की याद दिलाता है कि आदिवासी क्षेत्रों में जनसंख्या स्थिरीकरण की सबसे बड़ी चुनौती अब भी बनी हुई है। स्वास्थ्य विभाग ने साफ कहा है कि कई बार गर्भधारण और प्रसव से महिलाओं और नवजातों की जान पर खतरा बढ़ जाता है।
मातृ और शिशु मृत्यु दर का भयावह आंकड़ा
रेखा गलबेलिया भले ही 55 साल की उम्र में गर्भधारण के जोखिम से बच निकलीं, लेकिन उनके 17 बच्चों में से पाँच बच्चे जन्म के कुछ समय बाद ही मृत्यु का शिकार हो गए। यह स्थिति आदिवासी समाज में नवजात मृत्यु दर (Neonatal Mortality) की भयावह तस्वीर पेश करती है। आदिवासी इलाक़ों में यह दर प्रति 1,000 जन्म पर 28.8 मौतें है, जो राष्ट्रीय औसत 24.9 से अधिक है।
गरीबी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों का अभाव, और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी जानकारी की कमी इस मौत के चक्र के सबसे बड़े कारण हैं।
परिवार नियोजन और सुरक्षित गर्भपात की अनदेखी
सबसे अहम सवाल यह है कि क्या रेखा गलबेलिया और उनके पति को परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच थी? क्या उन्हें सुरक्षित गर्भपात सेवाओं के बारे में जानकारी थी? क्या आर्थिक संसाधनों की कमी या गर्भपात से जुड़ी सामाजिक कलंक की वजह से उन्होंने यह जोखिम उठाया?
अध्ययनों से साफ है कि जब महिलाएँ जानकारी और विकल्पों के साथ निर्णय लेती हैं, तब मातृ एवं नवजात स्वास्थ्य जोखिम और मृत्यु दर दोनों में कमी आती है। यही वह जगह है जहाँ मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
मीडिया की ताक़त: भ्रांतियाँ तोड़ना और जागरूकता बढ़ाना
मीडिया सिर्फ़ खबर देने का माध्यम नहीं है, यह धारणाएँ बदलने और कलंक तोड़ने का भी साधन है। सुरक्षित गर्भपात से जुड़ी गलतफहमियों को दूर करना, महिलाओं को जानकारी देना और यह दिखाना कि यह सेवाएँ महिलाओं की जिंदगी बचा सकती हैं, मीडिया की ज़िम्मेदारी है।
साविता हलप्पनावर का मामला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। 2012 में आयरलैंड में गर्भपात से इनकार के बाद उनकी मृत्यु ने देश में गर्भपात कानून पर जनमत संग्रह की माँग को जन्म दिया। इसी सामूहिक दबाव ने वहाँ के सख़्त कानूनों में सुधार किया।
दुनियाभर के उदाहरण: नई राहें और नवाचार
भारत की महिला एवं स्वास्थ्य कार्यकर्ता दुनिया के अन्य देशों के अनुभवों से सीख सकती हैं।
पेरू के PROMSEX एनजीओ ने गर्भपात से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए कानूनी लड़ाइयों और एडवोकेसी का सहारा लिया।
कोलंबिया की प्रोफामिलिया एनजीओ ने डॉक्टरों और प्रशासनिक कर्मचारियों को शामिल कर गर्भपात कलंक को कम किया।
भारत की हिडन पॉकेट्स कलेक्टिव ने स्थानीय सोशल मीडिया और बॉलीवुड स्टाइल म्यूज़िक वीडियो के जरिए युवाओं में प्रजनन स्वास्थ्य के अधिकारों पर जागरूकता फैलाई।
एशिया सेफ़ एबॉर्शन पार्टनरशिप ने एक एनिमेटेड शॉर्ट फ़िल्म बनाकर सोशल मीडिया पर गर्भपात जैसे संवेदनशील मुद्दे को सामने लाने की कोशिश की।
एनिमेशन और सांस्कृतिक रूप से जुड़ी सामग्री से गर्भपात, गर्भावस्था और यौन संबंधों के प्रति कलंक कम करने में मदद मिलती है।
बढ़ता प्रोनैटलिज़्म और घटती SRHR फंडिंग
आज के दौर में जब प्रोनैटलिज़्म (अधिक बच्चों की माँग) यूरोप से लेकर भारत तक बढ़ रहा है और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकारों (SRHR) के लिए मिलने वाली फंडिंग घट रही है, तब महिलाओं पर बच्चे पैदा करने का दबाव बढ़ रहा है।
अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के 2022 में रो वर्सेस वेड (Roe vs Wade) फैसले को पलटने के बाद दुनिया भर में गर्भपात अधिकारों पर असर पड़ा है। भारत में भले ही गर्भपात कानूनी हो, लेकिन इसके खिलाफ आवाज़ें तेज़ हो रही हैं। 67 प्रतिशत गर्भपात असुरक्षित तरीके से हो रहे हैं, जिनमें महिलाएँ घरेलू जड़ी-बूटियों या खतरनाक तरीकों (जैसे गर्भाशय में डंडियाँ डालना) का सहारा लेती हैं, जिससे गंभीर आंतरिक चोटें, संक्रमण और कभी-कभी मौत हो जाती है।
सतत मीडिया हस्तक्षेप की ज़रूरत
इन परिस्थितियों में लैंगिक समानता और स्वास्थ्य के अधिकार पर मीडिया की सतत भागीदारी बेहद अहम हो जाती है। सितंबर 2023 में लॉन्च हुई “SHE (Sexual Health with Equity and Rights)” मीडिया पहल इस दिशा में सराहनीय काम कर रही है। यह पहल सिविल सोसाइटी, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को एक साथ लाकर सटीक और सूचित रिपोर्टिंग को बढ़ावा देती है।
निष्कर्ष: जानकारी ही शक्ति है
रेखा गलबेलिया की कहानी हमें यह सिखाती है कि प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच और जागरूकता ही महिलाओं और बच्चों की जान बचा सकती है। जब तक मीडिया, सरकार और समाज मिलकर मिथकों और कलंक को नहीं तोड़ेंगे, तब तक मातृ और शिशु मृत्यु दर कम नहीं होगी।
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ एक ओर जनसंख्या स्थिरीकरण की चुनौती है और दूसरी ओर प्रोनैटलिज़्म का दबाव, वहाँ महिलाओं को उनके यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार सुनिश्चित करना लोकतंत्र और मानवाधिकार दोनों की कसौटी है।