पूर्वोत्तर पर मोदी का मिशन: विकास, सुरक्षा और “ब्रेक इंडिया” नेटवर्क

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पूनम शर्मा
देश के राजनीतिक और रणनीतिक नक्शे में इन दिनों पूर्वोत्तर भारत सुर्ख़ियों में है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हालिया पाँच राज्यों—मिज़ोरम, मणिपुर, असम, पश्चिम बंगाल और बिहार—के दौरे ने न सिर्फ़ राजनीतिक माहौल गरमा दिया है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेशी फंडिंग और विपक्षी रणनीतियों पर भी नई बहस छेड़ दी है। लगभग ₹8,000 करोड़ की परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास के साथ यह दौरा विकास और शांति बहाली के साथ-साथ भारत की सीमाओं को मज़बूत करने का रोडमैप भी बन गया है।

मोदी का पूर्वोत्तर मास्टरस्ट्रोक: विकास एवं सुरक्षा से नई रणनीति

मणिपुर में अकेले ₹7,000 करोड़ से अधिक की योजनाएँ शुरू होने जा रही हैं। रेलवे, बॉर्डर रोड्स, एयरफील्ड और डिजिटल कनेक्टिविटी—सब पर एक साथ काम। भारत-चीन सीमा के नज़दीक रेलवे और एयरबेस नेटवर्क के लिये सरकार ₹2 लाख करोड़ का निवेश कर रही है।पहले जहाँ सीमांत इलाक़ों में इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी चीन की आक्रामकता के सामने भारत की सबसे बड़ी कमजोरी थी, अब वही क्षेत्र तेज़ी से सुरक्षा-कवच में बदल रहे हैं। राफ़ेल स्क्वॉड्रन, नये एयरबेस और सुपर-फ़ास्ट हाईवे दिखा रहे हैं कि यह सिर्फ़ विकास नहीं, बल्कि डिटरेंस स्ट्रैटेजी है।

मणिपुर: हिंसा की छाया में शांति का नया इम्तिहान

पिछले ढाई साल में मणिपुर हिंसा और अलगाववाद का गढ़ बना रहा। सामुदायिक विभाजन और चरमपंथी गुटों ने हालात बिगाड़े। सैकड़ों लोग जान गंवा चुके। ऐसे में प्रधानमंत्री का दौरा सिर्फ़ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संकट-समाधान का हिस्सा भी है। अमित शाह पहले ही मणिपुर में रहकर शांति वार्ता की ज़मीन तैयार कर चुके हैं। हाल ही में दो बड़े समुदायों के बीच समझौता हुआ है, जिससे उम्मीद बनी है कि विकास परियोजनाएँ ज़मीन पर उतरेंगी और स्थायी शांति का रास्ता खुलेगा।

विपक्ष और ‘ब्रेक इंडिया’ विमर्श: राजनीतिक संघर्ष का नया चेहरा

मोदी के इस दौरे पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने तीखे सवाल उठाये। संसद में महीनों गतिरोध चला। राहुल गांधी ने मणिपुर यात्रा को “इतना महत्वपूर्ण नहीं” बताया। लेकिन बीजेपी समर्थक हलकों में सवाल यह है—जब हालात सुधर रहे हैं, तो विपक्ष विकास और शांति के बजाय नकारात्मकता क्यों फैला रहा है?

राहुल गांधी, विदेशी संपर्क और फंडिंग नेटवर्क की गुत्थी

राहुल गांधी की विदेशी हस्तियों से कथित मुलाक़ातें—जॉर्ज सोरोस, मोहम्मद यूनुस, मलेशिया और बांग्लादेश के लीडर—अब सुर्ख़ियों में हैं।
सोरोस पर पहले से आरोप है कि वे “मोदी सरकार गिराने” के लिये अरबों डॉलर झोंकने को तैयार हैं। सवाल उठता है कि कांग्रेस या राहुल गांधी ने इन मुलाक़ातों का खुलकर खंडन क्यों नहीं किया। सोशल मीडिया में यह नैरेटिव तेज़ है कि यह “ब्रेक इंडिया” नेटवर्क है, जो मणिपुर से लेकर कश्मीर तक अस्थिरता को बढ़ावा देता है।

सुरक्षा कवच का विवाद: विदेश में बिना सुरक्षा?

राहुल गांधी का एसपीजी सुरक्षा हटाये जाने के बाद विदेश दौरों पर जाना एक नया विवाद बना हुआ है। सरकार का कहना है—अगर देश में जान का खतरा है, तो विदेश में बिना सुरक्षा क्यों? 2019 में अमित शाह ने गृह मंत्रालय संभालने के बाद गांधी परिवार की विशेष सुरक्षा छूट खत्म की। इसके बावजूद विदेशी दौरों की गोपनीयता और मुलाक़ातें रहस्य गहरा देती हैं।

पड़ोसी देशों में अस्थिरता: भारत के लिये नया ‘रेड अलर्ट’

बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले, मोहम्मद यूनुस के बयान, और नेपाल की राजनीतिक उथल-पुथल—तीनों भारत के लिये खतरे की घंटी हैं।दोनों देशों में चीन का बढ़ता दखल भारत के सुरक्षा-तंत्र के लिये एक दीर्घकालिक चुनौती है। मोदी सरकार की पूर्वोत्तर परियोजनाएँ इस भू-राजनीतिक समीकरण का सीधा जवाब मानी जा रही हैं।

विदेशी एनजीओ और फंडिंग: वही पुराना पैटर्न

कश्मीर, खालिस्तान, मणिपुर, पूर्वोत्तर—हर जगह विदेशी एनजीओ और कथित मानवाधिकार संगठनों पर हिंसक और अलगाववादी गतिविधियों को फंड करने के आरोप लगते रहे हैं।
इस पूरे परिदृश्य में कांग्रेस के नेताओं की चुप्पी और विदेशी मुलाक़ातें “साइलेंट अप्रूवल” के रूप में पेश की जा रही हैं।

मीडिया नैरेटिव की जंग

सरकार समर्थक हलकों का आरोप है कि भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा राहुल गांधी के विदेश संपर्क, बांग्लादेश में हिंदू उत्पीड़न या मणिपुर समझौते जैसे विषयों को दबा देता है, जबकि मोदी सरकार की योजनाओं पर ज़रूरत से ज़्यादा निगेटिव कवरेज दी जाती है। यह मीडिया युद्ध अब सोशल मीडिया पर और भी तेज़ हो चुका है।

सीमा से संसद तक: मोदी सरकार की नई पॉलिसी का असर

डोकलाम, गलवान, और एससीओ सम्मेलनों के अनुभव के बाद मोदी सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर और रणनीति दोनों मोर्चों पर गियर बदल दिया है।
अब सीमांत इलाके सिर्फ़ चौकसी पोस्ट नहीं, बल्कि हाइब्रिड बेस बनते जा रहे हैं। वहाँ के नागरिकों को रोज़गार, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएँ देकर “सुरक्षा के लिये सामाजिक ढांचा” खड़ा किया जा रहा है।

निष्कर्ष: विकास बनाम विघटन – जनता को चुनना होगा रास्ता

भारत के सामने अब दो ही रास्ते हैं—
पूर्वोत्तर और सीमांत क्षेत्रों को विकास के रास्ते पर ले जाना, जिससे अलगाववादी ताक़तें कमजोर हों। विदेशी और घरेलू राजनीतिक हितों के कारण अस्थिरता को बढ़ावा देना। प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्राएँ और योजनाएँ पहले रास्ते को मज़बूती देती हैं। जनता को समझना होगा कि चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास को प्राथमिकता देनी ही देश को आगे ले जाएगी। विदेशी फंडिंग, कथित साजिशें और विपक्ष की बयानबाज़ी अंततः भारत की आंतरिक एकता को कमजोर कर सकती हैं।

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