प्रो. सतीश चंद्र मित्तल: राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के आलोक स्तंभ

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डॉ. कुमार राकेश
भारतीय इतिहास के विराट आकाश में प्रो. सतीश चंद्र मित्तल वह तेजस्वी नक्षत्र थे, जिनकी लेखनी ने इतिहास को राष्ट्रचेतना से जोड़ने का अद्भुत कार्य किया। पाश्चात्य दृष्टिकोण से आगे बढ़कर भारतीय परंपरा, संस्कृति और राष्ट्रभावना को केंद्र में रखकर उन्होंने इतिहासलेखन की नई दिशा तय की। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सक्रिय रहते हुए वे केवल इतिहासकार नहीं, बल्कि विचारक, कर्मयोगी और राष्ट्रधर्म के प्रहरी रहे। उनकी रचनाएँ आज भी युवा इतिहासकारों को प्रेरित करती हैं और भारतीय दृष्टि से इतिहास को पुनर्परिभाषित करने का आह्वान करती हैं।

जीवन परिचय और राष्ट्रवादी दृष्टि

12 सितम्बर 1938 को जन्मे प्रो. सतीश चंद्र मित्तल भारतीय इतिहासलेखन की उस धारा के अग्रदूत थे, जिसने पश्चिमी व्याख्याओं के बरक्स भारतीय दृष्टि को केंद्र में रखा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आधुनिक भारतीय इतिहास के वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में उन्होंने न केवल शिक्षण कार्य किया, बल्कि इतिहास को भारतीय संस्कृति, परंपरा और राष्ट्रभावना से जोड़ने का कार्य भी किया। वे संस्कृति मंत्रालय के केंद्रीय सलाहकार मंडल के सदस्य, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) के सदस्य और गुरुकुल फेलो भी रहे।

अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना से जुड़ाव

प्रो. मित्तल अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना (Abisy Yojana) के संस्थापक सदस्यों में थे। यह संगठन भारत के प्रामाणिक और राष्ट्रवादी इतिहासलेखन के लिए समर्पित है। अपने अंतिम दिनों तक वे इस योजना के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सक्रिय रहे। योजनागीत में वर्णित ‘नवदृढ़संकल्पम्’ की भावना को उन्होंने जीवन के अंत तक जिया।
विचार और योगदान
प्रो. मित्तल ने अपने शोध का केंद्र पंजाब और हरियाणा के स्वतंत्रता आंदोलनों को बनाया। उनकी दृष्टि में इतिहास केवल घटनाओं का संकलन नहीं, बल्कि राष्ट्रचेतना का वाहक है। वे मानते थे कि भारतीय इतिहास को उसकी मूल जड़ों, उसके नायकों और उसकी अस्मिता के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

साहित्य और कृतित्व

प्रो. मित्तल ने तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें और लगभग 500 शोधलेख लिखे। अंग्रेज़ी में उनकी चर्चित कृतियाँ हैं — Freedom Movement in Punjab (1905-1929), Sources on National Movement in India (1919-1920), India Distorted (तीन भाग), Modern India आदि।
हिंदी में उन्होंने भारत में राष्ट्रीयता का स्वरूप, भारत का स्वाधीनता संग्राम, 1857 की महान क्रांति का विश्व पर प्रभाव, स्वामी विवेकानंद की इतिहास दृष्टि, साम्यवाद का सच, 1857 का स्वातंत्र्य समर – एक पुनरावलोकन जैसी कालजयी पुस्तकें दीं।
उनकी रचनाएँ केवल ऐतिहासिक घटनाओं का वृत्तांत नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा की स्पंदनशीलता का दस्तावेज़ हैं।

सांस्कृतिक और शैक्षिक योगदान

वे हरियाणा में विद्याभारती के अंतर्गत कुछ स्कूलों के प्रबंधन से भी जुड़े रहे। उनका मानना था कि राष्ट्रवादी शिक्षा और संस्कार ही इतिहासलेखन को सही दिशा देंगे। उन्होंने वेंडी डोनिगर की विवादास्पद पुस्तक The Hindu: An Alternative History में त्रुटिपूर्ण तथ्यों के विरोध में भी आवाज़ उठाई।

व्यक्तित्व और प्रेरणा

प्रो. मित्तल जीवनभर कर्मठता, सरलता और राष्ट्रीयता के पर्याय बने रहे। उन्होंने इतिहास के क्षेत्र में ऐसे मानक स्थापित किए, जिनसे आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगी। योजनागीत की पंक्तियाँ — प्रगतिपथान्नहि विचलेम, परम्परां संरक्षेम — उनके जीवन का सजीव सार थीं।

अंतिम क्षण और विरासत

12 सितम्बर 2019 को उनका महाप्रयाण हुआ। उनके जाने से राष्ट्रवादी दृष्टि से भारतीय इतिहासलेखन को अपूरणीय क्षति हुई। परंतु उनका व्यक्तित्व, कृतित्व और कर्तृत्व आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्रेरणा-स्रोत बने रहेंगे। उन्होंने भारतीय चैतन्य और राष्ट्रभावना से ओत-प्रोत इतिहास की जो परंपरा शुरू की, वह आज भी जीवंत है।

प्रो. सतीश चंद्र मित्तल केवल एक इतिहासकार नहीं थे; वे राष्ट्रवादी चेतना के वाहक, संस्कृति के संरक्षक और इतिहासलेखन की नई दिशा के पथप्रदर्शक थे। उनकी लेखनी, उनके विचार और उनका जीवन हमें याद दिलाते हैं कि इतिहास केवल अतीत की कथा नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण का आधार है। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करना भारतीय इतिहासलेखन की उस धारा को नमन करना है जो राष्ट्रभावना को सर्वोपरि मानती है।

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