यूरोपीय रुख और भारत: बदलते वैश्विक समीकरणों के बीच एक नई परिभाषा

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

पूनम शर्मा
यूरोपीय संघ (European Union – EU) ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, जिसमें भारत और चीन पर 100% शुल्क लगाने की मांग की गई थी। यह कदम न केवल ट्रंप के आक्रामक आर्थिक एजेंडे को चुनौती देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि यूरोप भारत को अब एक साझेदार के रूप में देख रहा है, न कि किसी दबाव के उपकरण के रूप में।

ट्रंप का दबाव और यूरोप का इनकार

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में EU से अपील की थी कि वह भारत और चीन पर भारी शुल्क लगाए क्योंकि ये दोनों देश रूस के तेल के प्रमुख खरीदार हैं। उनका तर्क था कि रूस पर आर्थिक दबाव बढ़ाने के लिए भारत और चीन को दंडित करना आवश्यक है। लेकिन यूरोपीय संघ ने स्पष्ट कर दिया कि वह इस तरह के दंडात्मक कदमों में शामिल नहीं होगा।
यह इनकार बताता है कि यूरोप अब अमेरिकी दबाव की बिना सोचे-समझे पैरवी करने वाला क्षेत्र नहीं रहा। विशेषकर भारत के संदर्भ में, यूरोपीय संघ एक संतुलित दृष्टिकोण अपना रहा है।

भारत-यूरोप व्यापार वार्ताएँ: नए युग की तैयारी

इसी समय भारत और यूरोपीय संघ एक महत्त्वपूर्ण मुक्त व्यापार समझौते (FTA) की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इस समझौते के 13वें दौर की बातचीत दिल्ली में हो रही है जबकि अगला दौर ब्रुसेल्स में होगा। कृषि, डेयरी, और गैर-शुल्कीय बाधाओं पर अभी भी मतभेद हैं, लेकिन दोनों पक्ष वर्ष के अंत तक समझौता करने को लेकर आशावान हैं।
यह तथ्य कि यूरोप, ट्रंप की मांग को ठुकराते हुए भी भारत के साथ व्यापार बढ़ाने पर ध्यान दे रहा है, इस साझेदारी की गंभीरता को रेखांकित करता है।

रणनीतिक सोच और स्वतंत्र विदेश नीति

यूरोपीय संघ का यह रुख उसकी रणनीतिक सोच को दर्शाता है। एक ओर यूरोप को रूस के खिलाफ एकजुट होना है, वहीं दूसरी ओर वह भारत के साथ दीर्घकालिक साझेदारी को भी खतरे में नहीं डालना चाहता। भारत आज विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उसका उपभोक्ता बाज़ार यूरोप के लिए एक बड़े अवसर के रूप में देखा जाता है।
यूरोप को यह भी भलीभांति ज्ञात है कि भारत रूस-यूक्रेन युद्ध में संतुलित रुख अपनाए हुए है। वह रूस से ऊर्जा खरीदते हुए भी पश्चिमी देशों से अपने रिश्ते मज़बूत कर रहा है। इस ‘स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी’ को यूरोप एक सकारात्मक संकेत मान रहा है।

मोदी-मेलोनी बातचीत: यूरोप के लिए संकेत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी के बीच हाल ही में हुई फोन पर बातचीत ने भी भारत-यूरोप संबंधों को नया आयाम दिया। दोनों नेताओं ने व्यापार, निवेश और वैश्विक मुद्दों पर चर्चा की, जिसमें यूक्रेन संकट भी शामिल था। यह दिखाता है कि यूरोप की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ भारत को केवल व्यापारिक साझेदार नहीं बल्कि एक संभावित वैश्विक नीति निर्धारक के रूप में देख रही हैं।

यूरोप का ‘इंडो-पैसिफिक’ झुकाव और भारत

यूरोप के लिए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भारत की भूमिका भी अहम हो गई है। चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए भारत यूरोप का स्वाभाविक साझेदार बनता जा रहा है। यही कारण है कि यूरोपीय संघ भारत के साथ रक्षा सहयोग, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और सप्लाई चेन डाइवर्सिफिकेशन पर जोर दे रहा है।

भारत के प्रति यूरोप का नया दृष्टिकोण

यूरोप के इस बदले हुए दृष्टिकोण को तीन प्रमुख कारणों से समझा जा सकता है –

आर्थिक अवसर: भारत एक विशाल और स्थिर उपभोक्ता बाज़ार है, जहां यूरोपीय कंपनियों के लिए निवेश और निर्यात की भारी संभावनाएँ हैं।

भूराजनीतिक संतुलन: चीन और रूस के बीच यूरोप को एक भरोसेमंद एशियाई साझेदार चाहिए, और यह भूमिका भारत निभा सकता है।

मूल्य आधारित सहयोग: लोकतंत्र, नियम-आधारित व्यापार व्यवस्था और स्थिरता जैसे साझा मूल्यों के कारण यूरोप और भारत के बीच विश्वास बढ़ा है।

भारत के लिए संदेश

यूरोप के इस रुख से भारत को दो बड़े संदेश मिलते हैं। पहला, भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को यूरोप मान्यता दे रहा है। दूसरा, व्यापार और निवेश के क्षेत्र में भारत के पास यूरोप के साथ एक ऐतिहासिक अवसर है। यदि भारत कृषि और गैर-शुल्कीय बाधाओं पर लचीलापन दिखाता है तो यह समझौता न केवल व्यापारिक बल्कि रणनीतिक रिश्तों को भी मजबूत करेगा।

भविष्य की संभावनाएँ

यूरोप और भारत के बीच सहयोग के कई नए क्षेत्र खुल सकते हैं –

हरित ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन: यूरोप इस क्षेत्र में अग्रणी है और भारत के साथ तकनीकी साझेदारी कर सकता है।

डिजिटल और डेटा सुरक्षा: भारत का डिजिटल बाजार तेजी से बढ़ रहा है। यूरोप के पास मजबूत रेगुलेटरी अनुभव है।

रक्षा एवं सुरक्षा: समुद्री सुरक्षा, साइबर सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी सहयोग में दोनों पक्ष मिलकर काम कर सकते हैं।

निष्कर्ष

ट्रंप के दबाव को ठुकराना और भारत के साथ व्यापारिक साझेदारी को प्राथमिकता देना यूरोप के बदलते दृष्टिकोण को दिखाता है। यह न केवल भारत की वैश्विक स्थिति को मजबूत करता है बल्कि यह भी बताता है कि अब यूरोप अमेरिका के दबाव से स्वतंत्र होकर अपने हित तय कर रहा है।
भारत के लिए यह समय है कि वह यूरोप के साथ इस भरोसेमंद रिश्ते को एक नए रणनीतिक स्तर पर ले जाए। आने वाले वर्षों में यदि यह साझेदारी मजबूत होती है तो यह न केवल आर्थिक क्षेत्र में बल्कि वैश्विक भू-राजनीति में भी नए समीकरण बनाएगी।

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.