अशोक कुमार
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए बिगुल बजने से पहले ही राज्य की राजनीति में भूचाल आया हुआ है। एक तरफ जहां राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में सीट बंटवारे पर लगभग सहमति बनती दिख रही है, वहीं दूसरी तरफ विपक्षी महागठबंधन (INDIA ब्लॉक) में सीटों के बंटवारे को लेकर तलवारें खिंच गई हैं। दिल्ली से लेकर पटना तक कई दौर की बैठकों के बाद भी सीट शेयरिंग का मुद्दा सुलझने की बजाय और उलझता जा रहा है, जिससे गठबंधन के भविष्य पर सवालिया निशान लग गए हैं। कांग्रेस, आरजेडी और वाम दलों समेत अन्य सहयोगियों की महत्वाकांक्षी मांगों ने गठबंधन के नेताओं की रातों की नींद उड़ा दी है।
महागठबंधन में क्यों उलझा सीट बंटवारा?
महागठबंधन की बैठकों में सीट शेयरिंग पर सहमति न बनने के पीछे कई जटिल कारण हैं। यह सिर्फ सीटों की संख्या का मामला नहीं, बल्कि राजनीतिक वर्चस्व, पुरानी हार का हिसाब और नई महत्वाकांक्षाओं का टकराव है।
कांग्रेस का ’70 जिताऊ सीटों’ का दांव
महागठबंधन में सबसे बड़ा झटका कांग्रेस की नई रणनीति ने दिया है। दिल्ली में पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और सांसद राहुल गांधी की मौजूदगी में हुई बैठक में बिहार कांग्रेस के नेताओं ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार वे सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि ‘क्वालिटी सीटें’ चाहते हैं। सूत्रों के अनुसार, कांग्रेस ने फिर से 70 सीटों पर दावेदारी ठोंकी है, लेकिन इस बार उसकी शर्त है कि ये सभी सीटें जिताऊ होनी चाहिए।
कांग्रेस का यह नया आत्मविश्वास राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ की सफलता से आया है। पार्टी का मानना है कि इस यात्रा ने बिहार में उसकी स्थिति मजबूत की है, और अब वह केवल बड़े भाई आरजेडी के पीछे नहीं रहेगी। हालांकि, 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल 19 सीटें जीती थीं, जिसकी वजह से आरजेडी उसे कम सीटें देने का दबाव बना रहा था। कांग्रेस की यह नई जिद तेजस्वी यादव और आरजेडी के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है, क्योंकि अगर कांग्रेस को मनमाफिक सीटें दी गईं, तो अन्य सहयोगियों को संतुष्ट करना असंभव हो जाएगा।
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वाम दलों और मुकेश सहनी की बढ़ी हुई मांगें
कांग्रेस के बाद वाम दलों ने भी अपनी दावेदारी पेश कर दी है। सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में सीपीआई और सीपीआई (एम) ने मिलकर 65 से 70 सीटों की मांग की है। उनका तर्क है कि 2020 के चुनाव में उनका स्ट्राइक रेट महागठबंधन में सबसे बेहतर था। उस चुनाव में वाम दलों को 29 सीटें मिली थीं, जिनमें से उन्होंने 16 सीटें जीती थीं। सीपीआई (एमएल) ने 19 में से 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी। अपनी इसी सफलता को आधार बनाकर वाम दल अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहते हैं। अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं, तो उन्होंने गठबंधन से अलग होने की धमकी भी दी है, जो महागठबंधन के लिए एक बड़ा खतरा है।
वहीं, वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने तो सबको चौंकाते हुए 60-65 सीटों के साथ-साथ उप-मुख्यमंत्री पद की भी मांग कर दी है। सहनी, जो निषाद समुदाय के बड़े नेता माने जाते हैं, अपने जनाधार के बल पर यह दावा कर रहे हैं। हालांकि, उनकी यह मांग आरजेडी और कांग्रेस दोनों के लिए स्वीकार करना बेहद मुश्किल होगा।
तेजस्वी यादव की दोहरी चुनौती
महागठबंधन में सीट शेयरिंग का यह विवाद सीधे तौर पर तेजस्वी यादव की नेतृत्व क्षमता की परीक्षा है। एक तरफ उन्हें कांग्रेस, वाम दलों और अन्य छोटे सहयोगियों की महत्वाकांक्षाओं को संभालना है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी संतुष्ट करना है, जो 150 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। तेजस्वी को सीएम फेस घोषित करने को लेकर भी महागठबंधन में स्पष्टता नहीं है। कांग्रेस और वाम दलों के नेता ‘सीएम जनता तय करेगी’ जैसे बयान देकर तेजस्वी के नेतृत्व पर परोक्ष रूप से सवाल उठा रहे हैं। यह आंतरिक असंतोष गठबंधन को कमजोर कर रहा है।
गणित बनाम केमिस्ट्री: कहां उलझा है सारा हिसाब?
महागठबंधन की सभी पार्टियों की मांगों का अगर गणित लगाया जाए तो यह 243 सीटों की कुल संख्या से कहीं ज्यादा हो जाता है।
आरजेडी: 150 सीटों पर लड़ना चाहती है।
कांग्रेस: 70 ‘जिताऊ’ सीटें मांग रही है।
वाम दल: 65-70 सीटें चाहते हैं।
वीआईपी: 60-65 सीटें और उपमुख्यमंत्री पद।
जेएमएम और पासवान गुट: 5-10 सीटों पर चर्चा।
यह गणित साफ दिखाता है कि सभी को संतुष्ट करना असंभव है। एक दल को समायोजित करने से दूसरे दल की सीटों में कटौती होगी, जिससे असंतोष बढ़ेगा। अगर यह विवाद जल्द नहीं सुलझा, तो बागी उम्मीदवारों का खतरा बढ़ जाएगा, जो गठबंधन के वोटों में सेंध लगा सकते हैं।
एनडीए से मुकाबले में कहां ठहरता है महागठबंधन?
जहां महागठबंधन में सीटों को लेकर खींचतान मची हुई है, वहीं विपक्षी एनडीए में सीट बंटवारे पर लगभग सहमति बनती दिख रही है। सूत्रों के मुताबिक, जेडीयू 102, बीजेपी 101, और चिराग पासवान की लोजपा को 20 सीटें मिल सकती हैं। एनडीए की रणनीति साफ है: चुनाव से पहले गठबंधन की एकता का संदेश देना। अगर महागठबंधन में यह विवाद जारी रहा, तो एनडीए इसका पूरा फायदा उठाएगा और मतदाताओं के बीच यह संदेश देगा कि विपक्ष एकजुट नहीं है।
2020 के चुनाव में, महागठबंधन को 110 सीटें मिली थीं, और वह बहुमत से मात्र 12 सीटें दूर रह गया था। इस बार, अगर सभी दल एकजुट होकर लड़ते हैं और सीट विवाद को सुलझा लेते हैं, तो उनके पास जीत का अच्छा मौका है। लेकिन, 15 सितंबर को होने वाली अगली बैठक ही तय करेगी कि क्या गठबंधन इस चुनौती से उबर पाएगा या महत्वाकांक्षाएं ही गठबंधन की कमजोरी बन जाएंगी। विश्लेषकों का मानना है कि सीट बंटवारे में देरी महागठबंधन के लिए दोधारी तलवार साबित हो सकती है, जो वोटरों को भ्रमित कर सकती है और विपक्षी एनडीए को लाभ पहुंचा सकती है।
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