दुनिया भर में अपनी पहचान बनाए भारतीय गाय: पञ्चगव्य विद्यापीठम का आह्वान
संस्था स्वदेशी दृष्टिकोण को वैश्विक पशुधन विरासत से जोड़ती है; श्रेय संस्थापक गुरुजी डॉ. निरंजन वर्मा और कुलपति डॉ. कमल ताओरी, आईएएस (सेवानिवृत्त) को दिया जाता है।
समग्र समाचार सेवा
कांचीपुरम, तमिलनाडु, 28 अगस्त, 2025: पञ्चगव्य विद्यापीठम ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण आह्वान किया है, जिसमें उन्होंने भारत सरकार से दुनिया भर में ‘हम्प्ड कैटल’ यानी भारतीय नस्ल की गायों (बोस इंडिकस) और उनके महत्व पर वैश्विक विमर्श का नेतृत्व करने की अपील की है। विद्यापीठम का कहना है कि इन देसी गायों, जिनकी उत्पत्ति सिंधु घाटी में हुई थी और जिन्हें सदियों से भारतीय परंपरा में पूज्य माना जाता रहा है, में आज भी दुनिया के पशुपालन उद्योग को बदलने की क्षमता है। यह अपील ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘स्वदेशी’ आंदोलन के सिद्धांतों के अनुरूप है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख डॉ. मोहन भागवत जैसे नेताओं ने भी प्रोत्साहित किया है।
वैश्विक पहचान: गर्मी सहने की क्षमता और रोग प्रतिरोधक शक्ति
पञ्चगव्य विद्यापीठम के प्रो वाइस-चांसलर डॉ. कुमार राकेश ने भारतीय गायों की विशेषताओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि इन गायों को उनकी गर्मी सहने की अद्भुत क्षमता, विभिन्न वातावरण में ढल जाने की अनुकूलता और प्राकृतिक रूप से रोग प्रतिरोधक शक्ति के कारण दुनिया भर में अत्यधिक महत्व दिया जाता है। इस नस्ल की गायें, जिन्हें उनकी पीठ पर मौजूद कूबड़ से पहचाना जाता है, आज भी दुनिया के कई हिस्सों में पशुधन और कृषि के लिए एक महत्वपूर्ण आधार हैं।
डॉ. राकेश ने दुनिया भर में भारतीय नस्ल की गायों के उदाहरण भी दिए, जो आज वहां के पशुपालन उद्योग का अभिन्न अंग बन चुकी हैं। ब्राजील में ‘नेलोर’ और ‘जिरोलेंडो’ जैसी नस्लें, जो भारतीय नस्लों से विकसित की गई हैं, अपनी दूध उत्पादन क्षमता और अनुकूलन के लिए प्रसिद्ध हैं। इसी तरह, अमेरिका में ‘अमेरिकन ब्राह्मण’ नस्ल, अफ्रीका में ‘बोरान’ और ‘न्गूनी’, और ऑस्ट्रेलिया में ‘ब्राह्मण हर्ड्स’ भी भारतीय गायों की ही वंशज हैं। यह दर्शाता है कि भारतीय गायें अपने गुणों के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितनी सफल और प्रासंगिक हैं।
गाय के उत्पादों का वैज्ञानिक और आर्थिक महत्व
पञ्चगव्य विद्यापीठम का मानना है कि भारतीय गाय केवल दूध के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि उसके गोबर और गोमूत्र में भी कृषि और औषधीय उपयोग की अपार क्षमताएं हैं। पारंपरिक भारतीय ज्ञान में ‘पंचगव्य’ (गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर का मिश्रण) का उपयोग सदियों से औषधीय और धार्मिक उद्देश्यों के लिए होता रहा है।
डॉ. राकेश ने सरकार से ‘देसी गाय’ पर अनुसंधान, जागरूकता और वैश्विक स्तर पर वकालत बढ़ाने का आग्रह किया। उनका मानना है कि इस तरह के प्रयासों से भारतीय गाय को एक ऐसे प्रतीक के रूप में स्थापित किया जा सकता है जो सतत विकास, आत्मनिर्भरता और पर्यावरण संरक्षण का प्रतिनिधित्व करता है। आज जब दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का सामना कर रही है, तब भारतीय गायों की प्राकृतिक क्षमताएं और उनसे मिलने वाले उत्पाद एक स्थायी समाधान प्रदान कर सकते हैं।
यह केवल पशुधन नहीं, बल्कि संस्कृति और अर्थव्यवस्था का विषय है
पञ्चगव्य विद्यापीठम की इस पहल के पीछे की दूरदर्शिता उनके संस्थापक गुरुजी डॉ. निरंजन वर्मा और वाइस-चांसलर डॉ. कमल ताओरी को श्रेय दिया जाता है। उनकी दृष्टि केवल पशुधन को बढ़ावा देने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान को फिर से स्थापित करने का एक प्रयास है। इस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए, विद्यापीठम की योजना नई दिल्ली में विभिन्न मंत्रालयों के साथ बैठकें करने की है। इसके अलावा, एक अंतरराष्ट्रीय प्रेस कॉन्फ्रेंस भी आयोजित की जाएगी, जिसमें दुनिया भर के विशेषज्ञ शामिल होंगे।
यह पहल भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का प्रयास है जो अपनी जड़ों और पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ जोड़कर दुनिया को एक नया रास्ता दिखा सकता है। यह न केवल हमारी संस्कृति का सम्मान करता है, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था को भी एक नई दिशा प्रदान करता है, जिससे यह ‘आत्मनिर्भर’ बन सके।