रूस से भारत के तेल आयात और अंबानी की भूमिका

वैश्विक राजनीति का जटिल खेल

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पूनम शर्मा
भारत आज दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है। ऊर्जा सुरक्षा उसके लिए न केवल आर्थिक बल्कि सामरिक मजबूरी भी है। ऐसे समय में जब रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते पश्चिमी देश मास्को पर प्रतिबंधों की झड़ी लगाए बैठे हैं, भारत ने उलटे रूसी तेल पर अपनी निर्भरता कई गुना बढ़ा ली है। और इस बढ़त का सबसे बड़ा लाभार्थी है देश का सबसे बड़ा कॉर्पोरेट घराना – रिलायंस इंडस्ट्रीज़, जिसके मुखिया एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति, मुकेश अंबानी हैं।

3% से 50% तक का सफर

रिपोर्टों के मुताबिक, 2021 में रिलायंस के जामनगर रिफाइनरी में रूसी क्रूड ऑयल की हिस्सेदारी महज़ 3% थी। लेकिन 2025 आते-आते यह आंकड़ा औसतन 50% तक पहुँच गया। केवल इस साल के पहले सात महीनों में ही रिलायंस ने रूस से 18.3 मिलियन टन कच्चा तेल आयात किया, जिसकी कीमत करीब 8.7 अरब डॉलर बैठती है। यह आँकड़ा 2024 के कुल आयात से केवल 12% कम है। स्पष्ट है कि रिलायंस ने युद्ध और प्रतिबंधों की स्थिति को अवसर में बदल दिया।

ट्रंप का गुस्सा और 25% टैरिफ

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25% का अतिरिक्त आयात शुल्क थोपकर साफ संदेश दिया है कि रूसी तेल के सहारे चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था उन्हें स्वीकार नहीं। ट्रंप ने सोशल मीडिया पर भारत और चीन दोनों को रूस का सबसे बड़ा खरीदार बताते हुए कहा था कि ये देश यूक्रेन में “हत्या की मशीन” को चलाए रखने में मदद कर रहे हैं।

लेकिन सवाल उठता है: क्या यह वास्तव में केवल ऊर्जा का मामला है या इसके पीछे अमेरिका की अपनी रणनीतिक खीझ भी है? विश्लेषकों का मानना है कि ट्रंप की यह नीति भारत पर दबाव बनाने और चीन के मुकाबले आसान निशाना साधने का तरीका है। क्योंकि रूस से तेल आयात का सबसे बड़ा खिलाड़ी चीन है, लेकिन ट्रंप खुलकर बीजिंग को चुनौती देने से बच रहे हैं।

जामनगर से अमेरिका तक

दिलचस्प तथ्य यह है कि जिस तेल को भारत रूस से आयात कर रहा है, उसी तेल को परिष्कृत करके रिलायंस की रिफाइनरी अमेरिका और यूरोप जैसे उन्हीं देशों को निर्यात कर रही है, जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगा रखे हैं। फरवरी 2023 से जुलाई 2025 के बीच जामनगर से कुल 85.9 अरब डॉलर के उत्पाद निर्यात हुए, जिनमें से लगभग 42% (36 अरब डॉलर) ऐसे देशों को गए हैं जो रूस पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं।

सिर्फ अमेरिका ने ही 8.4 मिलियन टन तेल उत्पाद आयात किए हैं, जिनकी कीमत 6.3 अरब डॉलर बैठती है। इनमें से करीब 2.3 अरब डॉलर का तेल रूसी क्रूड से प्रोसेस किया गया था। यानी, अमेरिका प्रत्यक्ष रूप से उसी तेल का उपभोक्ता बन रहा है, जिसके आयात पर वह भारत को दंडित कर रहा है। यही कारण है कि विशेषज्ञ इसे “पूर्ण पाखंड” और “शेम” कह रहे हैं।

भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता

भारत की विदेश नीति का मूल आधार हमेशा से गुटनिरपेक्षता रहा है। शीतयुद्ध के दौर में भी उसने कभी अमेरिका या सोवियत संघ का अंधानुकरण नहीं किया। आज भी भारत यही संदेश देना चाहता है कि वह अपनी ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक हितों के लिए स्वतंत्र निर्णय लेगा।
सस्ते रूसी तेल ने भारत को चालू खाता घाटा संभालने में मदद दी है, और घरेलू महँगाई पर भी कुछ हद तक अंकुश लगाया है। यही वजह है कि सरकार अंबानी या अन्य निजी कंपनियों की आलोचना के बावजूद इस व्यापार को रोकने के मूड में नहीं है।

ट्रंप का यह टैरिफ  पूरी तरह से एक छलावा है। जब अमेरिका चीन को रूस का सबसे बड़ा खरीदार मानते हुए भी नजरअंदाज कर रहा है, तो भारत को चुनिंदा तरीके से निशाना बनाना कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित है।

यूरोप की नई पाबंदी और भविष्य की चुनौतियाँ

यूरोपीय संघ ने 2025 के अंत तक ऐसा कानून लागू करने का ऐलान किया है, जिसमें रूसी कच्चे तेल से तैयार किसी भी परिष्कृत उत्पाद के आयात पर रोक होगी। इसका सीधा असर रिलायंस पर पड़ेगा, क्योंकि उसके जेट फ्यूल निर्यात का आधे से ज्यादा हिस्सा यूरोप जाता है। यदि यह बाज़ार बंद हुआ तो अंबानी को अपनी पूरी निर्यात रणनीति बदलनी होगी।

हालाँकि, दिसंबर 2024 में रिलायंस ने रूस की सरकारी कंपनी रोसनेफ्ट के साथ 10 साल का अनुबंध भी किया है। यह अनुबंध यूरोप और अमेरिका की नीतियों के टकराव के बीच रिलायंस की स्थिति को और पेचीदा बना देगा।

निष्कर्ष

कुल मिलाकर, भारत के लिए यह केवल कॉर्पोरेट मुनाफे का सवाल नहीं है। यह उसकी ऊर्जा सुरक्षा, रणनीतिक स्वायत्तता और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संतुलन साधने की जटिल चुनौती है। मुकेश अंबानी की रिलायंस ने प्रतिबंधों के बीच व्यापारिक अवसर खोज लिया है, लेकिन इसकी कीमत भारत को अमेरिकी दबाव, अतिरिक्त शुल्क और पश्चिमी देशों की नई नीतियों के रूप में चुकानी पड़ सकती है।

भारत के सामने अब यह परीक्षा है कि क्या वह अपने आर्थिक हितों और रणनीतिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन कायम रख पाएगा, या फिर अमेरिकी दबाव उसकी ऊर्जा नीति को मोड़ देगा।

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