पीएम और सीएम की कुर्सी खतरे में: 30 दिन की गिरफ्तारी का नया नियम और विपक्ष की सियासी हाय-तौबा

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पूनम शर्मा
भारतीय राजनीति में बुधवार का दिन कई मायनों में ऐतिहासिक रहा। संसद में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तीन अहम विधेयक पेश किए – संविधान (130वां संशोधन) विधेयक, केंद्र शासित प्रदेश शासन (संशोधन) विधेयक और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक 2025। इन विधेयकों के जरिए सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि अब देश में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री अगर लगातार 30 दिन तक न्यायिक हिरासत में रहते हैं और उन पर पांच साल या उससे अधिक सजा वाले अपराध का मामला चलता है, तो उन्हें अपने पद से हटना पड़ेगा।

सरकार का तर्क है कि यह कदम राजनीति में आपराधिकरण रोकने और शुचिता कायम करने की दिशा में है। लेकिन विपक्ष इसे ‘तानाशाही कानून’, ‘लोकतंत्र पर हमला’ और ‘सत्ता के दुरुपयोग’ का नया औजार बताकर बुरी तरह विरोध कर रहा है। सवाल यह है कि असली डर विपक्ष को किस बात का है?

विपक्ष की हाय-तौबा: डर या राजनीति?

कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने ट्वीट कर लिखा कि सरकार विपक्षी दलों को अस्थिर करने के लिए इस कानून का इस्तेमाल करेगी। उनका कहना है कि केंद्र अपनी एजेंसियों के जरिए मनमानी गिरफ्तारियां कराकर चुनी हुई सरकारों को गिराना चाहेगा।

दरअसल, यह चिंता केवल कांग्रेस तक सीमित नहीं है। तमिलनाडु, झारखंड, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे गैर-भाजपा शासित राज्यों के नेता इस कानून से सबसे ज्यादा घबराए दिख रहे हैं। वजह साफ है – हाल के वर्षों में ईडी और सीबीआई की कार्रवाई ने कई विपक्षी नेताओं को घेरा है। अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन, वी. सेंथिल बालाजी जैसे नाम इसका ताजा उदाहरण हैं।

अगर नया कानून पहले से लागू होता, तो केजरीवाल को 31वें दिन स्वतः मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ता। यही वह परिदृश्य है, जिससे विपक्ष बुरी तरह बौखलाया है।

विपक्ष का ‘नैतिक दिवालियापन’

किसी भी लोकतंत्र में यह जरूरी है कि जो नेता जनता की सेवा करने का दावा करता है, वह खुद कानून और नैतिकता के दायरे में खड़ा हो। लेकिन हमारे देश में लंबे समय से ऐसे नेता सत्ता पर काबिज रहे हैं, जो भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग और आपराधिक मामलों में फंसे हुए हैं।

विपक्ष का शोर-शराबा दरअसल इस ‘नैतिक दिवालियापन’ को ढकने की कोशिश है। वह जनता को यह समझाना चाहता है कि यह कानून केवल विपक्ष को टारगेट करेगा। लेकिन सच यह है कि यह नियम किसी भी पार्टी पर समान रूप से लागू होगा। अगर कोई भाजपा नेता भी 30 दिन से ज्यादा जेल में रहता है और गंभीर आरोपों का सामना करता है, तो उसे भी पद छोड़ना पड़ेगा।

सरकार का दृष्टिकोण: राजनीति से अपराधियों की छुट्टी

सरकार का कहना है कि अब तक मंत्रियों के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। जनप्रतिनिधि केवल सजा होने पर अयोग्य ठहराए जाते थे, लेकिन गिरफ्तारी के दौरान वे पद पर बने रहते थे। यही वजह थी कि गिरफ्तारी के बावजूद केजरीवाल जैसे नेता ‘जेल से सरकार चलाने’ का तमाशा करते रहे।

अमित शाह ने विधेयक पेश करते हुए कहा कि अगर एक सरकारी कर्मचारी गिरफ्तारी पर तुरंत निलंबित हो सकता है, तो मंत्री या मुख्यमंत्री क्यों नहीं? जनता के विश्वास का तकाजा है कि जिन पर गंभीर अपराध का आरोप हो, वे तब तक शासन न चलाएं जब तक अदालत से बरी न हो जाएं।

सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय एजेंसियां

सुप्रीम कोर्ट ने हाल के महीनों में ईडी और सीबीआई की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा कि एजेंसियां ‘सीमा लांघ रही हैं’। विपक्ष इन्हीं टिप्पणियों को हथियार बनाकर सरकार पर आरोप लगा रहा है कि नया कानून एजेंसियों के जरिए विपक्षी राज्यों को अस्थिर करने का रास्ता खोल देगा।

लेकिन क्या एजेंसियों की जांच मात्र इसलिए गलत मानी जाए कि उसमें विपक्षी नेता फंस रहे हैं? अगर भ्रष्टाचार किया गया है, तो जांच तो होगी ही। असल में विपक्ष को जनता की अदालत से डर है, इसलिए वह न्यायिक प्रक्रिया को भी ‘सियासी षड्यंत्र’ बताकर बच निकलना चाहता है।

विपक्ष की दोहरी नीति

दिलचस्प यह है कि जब झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गिरफ्तारी से पहले इस्तीफा दिया था, तब विपक्ष ने इसे ‘नैतिक निर्णय’ बताया था। लेकिन अब जब यह नियम कानूनी रूप ले रहा है, तो वही विपक्ष इसे लोकतंत्र का गला घोंटना बता रहा है।

सच्चाई यह है कि विपक्ष को अपनी सत्ता और कुर्सी की ज्यादा चिंता है, जनता की नहीं। वरना, वह ऐसे प्रावधान का स्वागत करता जो शासन में शुचिता और पारदर्शिता लाता है।

राजनीतिक भविष्य की तस्वीर

अगर ये विधेयक कानून बन जाते हैं, तो देश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा।

अपराध और भ्रष्टाचार में फंसे नेताओं का ‘जेल से सत्ता चलाने’ का दौर खत्म होगा।

जनता को साफ संदेश जाएगा कि सत्ता में वही रहेगा जो कानून के दायरे में ईमानदार है।

विपक्ष को मजबूरन अपने नेताओं की छवि सुधारनी होगी और जनता के सामने नई राजनीति रखनी होगी।

निष्कर्ष

विपक्ष की बेचैनी साफ है – यह कानून उनके कई ‘करोड़पति-भ्रष्टाचारी’ नेताओं की कुर्सी हिला सकता है। यही वजह है कि इसे ‘तानाशाही’ कहकर हंगामा मचाया जा रहा है। लेकिन असली सवाल है – क्या जनता उन नेताओं को सत्ता में देखना चाहती है जो जेल की सलाखों के पीछे हैं?

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