पूनम शर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अपने संबोधन में देश के सामने एक गंभीर मुद्दा रखा। उन्होंने कहा कि “भारत की सीमावर्ती क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय परिवर्तन किसी साजिश का हिस्सा है। यह न केवल सामाजिक संतुलन बिगाड़ता है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौती बनता है।”
उनके इस बयान ने बहस को नया मोड़ दिया है। सवाल यह है कि आखिर जनसांख्यिकीय बदलाव किस हद तक वास्तविक है और किस हद तक यह राजनीतिक विमर्श का हिस्सा है।
सात दशक के जनगणना आंकड़े
भारत में 1951 से 2011 तक की जनगणना के आँकड़े यह बताते हैं कि सीमावर्ती राज्यों की आबादी वृद्धि दर अक्सर देश की औसत वृद्धि दर से अधिक रही है।
पूर्वोत्तर राज्यों — असम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश — में पिछले दशकों में तेज़ जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई।
उत्तर भारत — विशेषकर बिहार, उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर — में भी कई बार सीमांत जिलों की आबादी में असमान वृद्धि देखी गई।
हालांकि, यह पैटर्न हर जगह एक जैसा नहीं है। कुछ राज्यों में सीमांत और आंतरिक जिलों के बीच अंतर लगभग धुंधला हो गया है।
यानी कि, जहाँ कहीं बाहरी कारक (जैसे प्रवासन या अवैध घुसपैठ) सक्रिय रहे हैं, वहाँ असामान्य वृद्धि देखी गई, लेकिन हर सीमा पर ऐसा नहीं हुआ।
अवैध प्रवासन और सुरक्षा संकट
प्रधानमंत्री मोदी का संकेत विशेषकर अवैध प्रवासन की ओर है।
बांग्लादेश सीमा से असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के कई जिलों में दशकों से घुसपैठ की समस्या बनी रही है।
म्यांमार सीमा से मिज़ोरम और मणिपुर में रोहिंग्या और चिन समुदाय के शरणार्थियों का प्रवेश देखा गया।
पाकिस्तान सीमा पर भी कभी-कभी जनसांख्यिकीय संतुलन में हलचल दर्ज की गई है।
सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि घुसपैठ केवल जनसंख्या का सवाल नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक और सामरिक जोखिम भी पैदा करती है। स्थानीय संसाधनों पर दबाव, मतदाता संतुलन में परिवर्तन, और सांप्रदायिक तनाव इसकी सीधी परिणति होती है।
विपक्ष और आलोचकों की राय
हालांकि विपक्षी दलों और कुछ विशेषज्ञों ने प्रधानमंत्री की टिप्पणी को राजनीतिक रंग देने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि:
जनसंख्या वृद्धि कई बार प्राकृतिक कारकों के कारण होती है — जैसे उच्च प्रजनन दर, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी।
अवैध प्रवासन का प्रभाव वास्तविक है, परंतु इसे पूरे समुदाय पर थोपना सही नहीं।
सरकार को चाहिए कि वह जनगणना और एनआरसी जैसी संस्थागत प्रक्रियाओं के माध्यम से तथ्यों को साफ़ करे, न कि केवल राजनीतिक मंच से इसे मुद्दा बनाए।
सामाजिक और सांस्कृतिक असर
जनसांख्यिकीय बदलाव का असर केवल संख्या तक सीमित नहीं होता।
यह सांस्कृतिक स्वरूप बदल सकता है — भाषा, परंपराओं और धार्मिक संरचना पर असर डालता है।
स्थानीय लोग अपने ही क्षेत्र में अल्पसंख्यक महसूस करने लगते हैं।
रोजगार, ज़मीन और संसाधनों को लेकर प्रतिस्पर्धा और तनाव बढ़ता है।
पूर्वोत्तर भारत में कई बार यही असंतोष हिंसक आंदोलनों का कारण भी बना है।
मोदी की चेतावनी और आगे का रास्ता
मोदी ने कहा कि “कोई भी देश अपने को घुसपैठियों को नहीं सौंप सकता। जब विश्व की अन्य सरकारें अपने नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देती हैं, तो भारत कैसे इस खतरे को नज़रअंदाज़ कर सकता है?”
इस बयान के बाद यह स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में केंद्र सरकार सीमा सुरक्षा और जनगणना संबंधी सुधारों पर और कड़े कदम उठा सकती है।
डिजिटल निगरानी और स्मार्ट फेंसिंग
जनसंख्या रजिस्टर (NPR) और नागरिकता सत्यापन
सीमा राज्यों में विकास योजनाएँ ताकि स्थानीय लोगों का पलायन न हो और संतुलन कायम रहे।
निष्कर्ष
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में जनसांख्यिकीय संतुलन केवल आँकड़ों का मामला नहीं है, यह राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक सामंजस्य और सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी की चेतावनी ने इस मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। अब ज़रूरत है कि राजनीतिक विवाद से आगे बढ़कर ठोस आँकड़ों और नीतिगत उपायों पर आधारित समाधान खोजा जाए।
सीमांत इलाकों का संतुलन केवल सीमा की रक्षा से नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सुरक्षा सुनिश्चित करने से भी कायम रहेगा।