पूनम शर्मा
महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गई है। उपराष्ट्रपति पद के चुनावों के लिए बीजेपी नेतृत्व ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सी. पी. राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाया है। इस घोषणा के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने व्यक्तिगत पहल करते हुए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) के सुप्रीमो शरद पवार और शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के प्रमुख उद्धव ठाकरे से समर्थन की अपील की है।यह कदम केवल एक औपचारिकता नहीं बल्कि महाराष्ट्र की बदलती राजनीतिक बिसात का हिस्सा है।
महाराष्ट्र की अस्मिता और “गौरव” का तर्क
फडणवीस का बयान ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा कि “यह हम सभी के लिए गर्व की बात है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल को देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद के लिए चुना गया है।” भले ही राधाकृष्णन तमिलनाडु से आते हैं, लेकिन उन्होंने मुंबई में अपना वोट दर्ज कराया है और विधान सभा चुनाव में मतदान भी यहीं से किया। इस तथ्य को उभारकर फडणवीस ने राधाकृष्णन की पहचान को महाराष्ट्र से जोड़ा और इसे क्षेत्रीय गर्व से जोड़ने की कोशिश की। इस प्रकार बीजेपी ने चुनावी राजनीति से इतर संवैधानिक पद को ‘महाराष्ट्र का गौरव’ बनाकर पेश किया है। यह रणनीति विपक्षी दलों पर दबाव बनाने का काम कर सकती है।
शरद पवार और उद्धव ठाकरे की दुविधा
अब सवाल यह है कि शरद पवार और उद्धव ठाकरे जैसे नेता क्या करेंगे?
शरद पवार हमेशा राष्ट्रीय राजनीति में अपने संतुलनकारी और व्यावहारिक रवैये के लिए जाने जाते हैं। वह अक्सर विपक्षी खेमे से जुड़े रहते हुए भी बीजेपी या सत्ता पक्ष के साथ संवाद बनाए रखते हैं। इसलिए उनका रुख देखना दिलचस्प होगा।
उद्धव ठाकरे की स्थिति और जटिल है। शिवसेना (UBT) लगातार बीजेपी और शिंदे गुट के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है। अगर उद्धव फडणवीस के अनुरोध को मान लेते हैं, तो उनकी साख पर असर पड़ सकता है। लेकिन अगर वह विरोध करते हैं तो बीजेपी उन्हें ‘महाराष्ट्र विरोधी’ ठहराने की कोशिश कर सकती है।
यानी यह समर्थन का सवाल केवल राधाकृष्णन की उम्मीदवारी तक सीमित नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र की राजनीति में विपक्ष की भविष्य की रणनीति पर भी असर डाल सकता है।
राधाकृष्णन का व्यक्तित्व और पृष्ठभूमि
सी. पी. राधाकृष्णन का नाम महाराष्ट्र की जनता के बीच बहुत चर्चित नहीं रहा है। लेकिन संघ पृष्ठभूमि वाले इस नेता ने राज्यपाल रहते हुए किसी बड़े विवाद में खुद को उलझने नहीं दिया। यही कारण है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के नेताओं से अच्छे संबंध बनाए रखने में सफल रहे।
68 वर्षीय राधाकृष्णन का संसदीय अनुभव और संवैधानिक विषयों पर पकड़ उन्हें एक सशक्त उम्मीदवार बनाती है। फडणवीस ने इसी को आधार बनाकर कहा कि उनका चयन “सभी महाराष्ट्रीयनों के लिए गर्व की बात” है।
बीजेपी की व्यापक रणनीति
बीजेपी के लिए यह चुनाव केवल एक संवैधानिक औपचारिकता नहीं है। इसके पीछे कुछ बड़े राजनीतिक संकेत छिपे हैं—
राष्ट्रीय स्तर पर सर्वसम्मति का माहौल बनाना – फडणवीस द्वारा विपक्ष से अपील करना यह दिखाता है कि बीजेपी इस चुनाव को बिना टकराव के संपन्न कराना चाहती है।
महाराष्ट्र की राजनीति में दबाव बनाना – बीजेपी चाहती है कि पवार और ठाकरे सार्वजनिक रूप से असमंजस में पड़ें। अगर वे समर्थन देते हैं तो विपक्षी एकता पर आंच आती है, और अगर विरोध करते हैं तो बीजेपी इसे ‘महाराष्ट्र के गर्व’ के खिलाफ बता सकती है।
भविष्य के समीकरणों की नींव – महाराष्ट्र में अगले विधानसभा चुनाव और 2029 लोकसभा चुनाव की दिशा तय करने के लिए बीजेपी पहले से ही विपक्षी नेताओं के रवैये को परख रही है।
निष्कर्ष
महाराष्ट्र में उपराष्ट्रपति चुनाव को लेकर बनी स्थिति केवल संवैधानिक पद की राजनीति नहीं है, बल्कि यह सत्ता और विपक्ष के बीच आने वाले दिनों की रणनीति का ट्रेलर भी है।
देवेंद्र फडणवीस ने चालाकी से राधाकृष्णन की उम्मीदवारी को “महाराष्ट्र के गौरव” से जोड़कर विपक्षी नेताओं को नैतिक दबाव में लाने की कोशिश की है। अब देखना यह होगा कि शरद पवार और उद्धव ठाकरे इस राजनीतिक आमंत्रण को किस तरह स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। जो भी फैसला वे करेंगे, उसका असर महाराष्ट्र की राजनीति पर गहरा पड़ेगा और बीजेपी की रणनीति की दिशा तय करेगा।
यह पूरा घटनाक्रम इस बात का प्रमाण है कि संवैधानिक पदों की राजनीति भी क्षेत्रीय अस्मिता और राजनीतिक समीकरणों से अलग नहीं होती।