पृथ्वी के दुर्लभ तत्वों पर चीन की पकड़ और भारत का अवसर

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पूनम शर्मा
दुनिया की अर्थव्यवस्था और तकनीकी जगत में दुर्लभ पृथ्वी तत्वों (Rare Earth Elements) की अहमियत लगातार बढ़ रही है। इलेक्ट्रिक वाहनों के शक्तिशाली मैग्नेट हों, पवन ऊर्जा टरबाइन, मोबाइल फोन, मिसाइल या लड़ाकू विमान – लगभग हर आधुनिक तकनीक में इन तत्वों की अनिवार्य भूमिका है। चीन इस समय इनका सबसे बड़ा खिलाड़ी है, क्योंकि वैश्विक स्तर पर 90 प्रतिशत से अधिक दुर्लभ-पृथ्वी तत्वों के परिष्करण (refining) की क्षमता उसी के पास है।

चीन की चाल और वैश्विक झटका

कुछ महीने पहले जब चीन ने अचानक इन तत्वों के निर्यात पर रोक लगाई, तो इसका प्रभाव तुरंत दिखाई दिया। ऑटोमोबाइल कंपनियों ने उत्पादन घटाने की घोषणा की, इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माता आपूर्ति के लिए भाग-दौड़ में लग गए और नीति-निर्माताओं ने इसे “आर्थिक दबाव” का हथियार करार दिया।

हालांकि, यह कदम जितना चीन की ताकत को दिखाता है, उतना ही उसके लिए जाल भी है। हर बार जब बीजिंग इन तत्वों को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है, दुनिया भर में वैकल्पिक आपूर्ति स्रोतों की खोज तेज हो जाती है। 2010 में भी जब चीन ने जापान को आपूर्ति सीमित की थी, तब जापान और कई अन्य देशों ने नए खनन, रीसाइक्लिंग और विकल्प तकनीकों में निवेश शुरू किया। आज की विविधीकरण (diversification) की मुहिम उसी बीज से जन्मी है।

भारत के लिए सुनहरा मौका

इस बार की पाबंदी भारत के लिए एक बड़ा अवसर लेकर आई है। भारत के पूर्वी तट पर मोनाजाइट (Monazite) के विशाल भंडार मौजूद हैं, और एक सरकारी कंपनी पहले से ही खनन में सक्रिय है। अब तक भारत की कमजोरी डाउनस्ट्रीम यानी परिष्करण और उच्चस्तरीय प्रसंस्करण में रही है। मगर हालात बदल रहे हैं। नई दिल्ली जापान और दक्षिण कोरिया के साथ साझेदारी कर रही है और चुंबक निर्माण के लिए नीति प्रोत्साहन देने पर विचार कर रही है।

भारत के रक्षा क्षेत्र के लिए यह आत्मनिर्भरता बेहद अहम है। मिसाइल, राडार और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली में इस्तेमाल होने वाले दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की स्थायी आपूर्ति राष्ट्रीय सुरक्षा की आवश्यकता है। अगर भारत खनन, परिष्करण और मैग्नेट निर्माण में संतुलन बना लेता है, तो वह न केवल वैश्विक बाजारों का आपूर्तिकर्ता बनेगा बल्कि एक आत्मनिर्भर रक्षा शक्ति के रूप में भी उभरेगा।

चुनौतियाँ और वास्तविकता

हालांकि, यह राह आसान नहीं है। दुर्लभ पृथ्वी तत्वों का पृथक्करण संयंत्र (separation facilities) बेहद जटिल, महंगे और पर्यावरण के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं। खासकर भारी तत्व जैसे डिस्प्रोसियम (Dysprosium) और टर्बियम (Terbium) चीन के अलावा और कहीं आसानी से नहीं मिलते। आने वाले 2-3 वर्षों तक कीमतों में उतार-चढ़ाव और आपूर्ति की अस्थिरता बनी रह सकती है। इससे रक्षा ठेकेदारों और ईवी निर्माताओं पर लागत का दबाव पड़ेगा।

वैश्विक प्रतिक्रिया और नई दिशा

फिर भी दीर्घकालिक तस्वीर साफ है – चीन की ताकत तभी तक बनी रहती है जब दुनिया शिथिल रहती है। जैसे ही वह बार-बार इस ताकत का इस्तेमाल दबाव बनाने के लिए करता है, बाक़ी देश निवेश, नवाचार और सहयोग की ओर बढ़ जाते हैं। अब वाशिंगटन से लेकर ब्रसेल्स और नई दिल्ली तक दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की उपलब्धता एक रणनीतिक प्राथमिकता बन चुकी है।

रीसाइक्लिंग परियोजनाओं में तेजी आई है, भंडारण रणनीतियाँ सुधारी जा रही हैं और विकल्प खोजने के लिए शोध बढ़ रहा है। यानी चीन ने खुद अपने प्रतिस्पर्धियों को स्वतंत्र बनने की दिशा में धकेल दिया है।

चीन की रणनीति और उसका उल्टा असर

चीन अभी भी भूगर्भीय संसाधनों, औद्योगिक संरचना और तकनीकी अनुभव में बढ़त रखता है। लेकिन जिस तरह से वह इस बढ़त को हथियार बनाता है, उसी तरह यह धीरे-धीरे कमजोर भी हो रही है। उसकी यह रणनीति आपूर्ति शृंखलाओं में दुनिया को बांधने के बजाय उन्हें उससे अलग होने का कारण दे रही है।

नई परियोजनाएँ शुरू होने और तकनीकी निर्भरता घटने के साथ ही चीन की “दबाव डालने की क्षमता” कमजोर पड़ जाएगी। इतिहास भी यही बताता है – जिस हथियार का इस्तेमाल बार-बार किया जाए, उसकी धार कमजोर हो जाती है। चीन दुर्लभ पृथ्वी तत्वों को आर्थिक दबाव का औजार बनाकर शायद उस दिन को तेज़ कर रहा है, जब यह औजार असरदार ही नहीं रहेगा।

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