पूनम शर्मा
पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सबसे बड़ा बदलाव आर्थिक गठबंधनों और वैकल्पिक शक्तिकेंद्रों के उभार से जुड़ा हुआ है। इनमें से सबसे प्रभावशाली मंच ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) है, जिसने पश्चिमी प्रभुत्व वाली वैश्विक व्यवस्था को चुनौती देने का काम किया है। आज जब भारत इस मंच में सक्रिय भूमिका निभा रहा है, तो यह केवल एक औपचारिक साझेदारी नहीं बल्कि बदलते भू-राजनीतिक संतुलन का संकेत है।
अमेरिका-केंद्रित व्यवस्था को चुनौती
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से विश्व व्यवस्था का केंद्र अमेरिका और पश्चिमी यूरोप रहे। डॉलर को वैश्विक मुद्रा बनाकर अमेरिका ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित किया। लेकिन अब यह एकतरफा व्यवस्था दरक रही है। तेल व्यापार में वैकल्पिक मुद्राओं का प्रयोग, डॉलर-रहित लेनदेन की पहल और ब्रिक्स बैंक जैसी संस्थाएं अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व को सीधी चुनौती देती हैं।
भारत इस चुनौती का हिस्सा होते हुए भी संतुलन की राजनीति निभा रहा है। अमेरिका और यूरोप के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाए रखते हुए भारत ब्रिक्स के माध्यम से एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की दिशा में काम कर रहा है।
भारत की प्राथमिकताएँ
भारत के लिए ब्रिक्स केवल आर्थिक मंच नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक छतरी भी है।
ऊर्जा सुरक्षा – रूस और ब्राज़ील जैसे ऊर्जा-समृद्ध देशों से सहयोग भारत की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में मदद करता है।
आर्थिक अवसर – नए निवेश, तकनीकी सहयोग और व्यापारिक समझौते भारत के विकास लक्ष्यों को गति देते हैं।
रणनीतिक संतुलन – चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के बावजूद भारत ब्रिक्स में अपनी भूमिका मज़बूत कर संतुलन साध रहा है।
चीन और भारत: प्रतिद्वंद्विता के बीच सहयोग
ब्रिक्स का सबसे पेचीदा पहलू भारत-चीन समीकरण है। एक ओर सीमा विवाद, आर्थिक प्रतिस्पर्धा और इंडो-पैसिफिक में भू-रणनीतिक टकराव है, दूसरी ओर ब्रिक्स मंच पर दोनों देशों को साथ आना पड़ता है। यह स्थिति भारत को अवसर भी देती है और चुनौती भी। भारत अपनी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की सोच के साथ चीन को संतुलित करने और वैश्विक दक्षिण (Global South) की आवाज़ बनने की कोशिश कर रहा है।
रूस-भारत की पारंपरिक साझेदारी
रूस और भारत के संबंध दशकों पुराने हैं। पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच रूस भारत को भरोसेमंद साझेदार मानता है। ब्रिक्स में रूस की सक्रियता भारत के लिए भी उपयोगी है क्योंकि यह चीन के प्रभाव को संतुलित करने में मदद करता है। साथ ही, ऊर्जा और रक्षा सहयोग की नींव और मज़बूत होती है।
ब्रिक्स बैंक और वित्तीय क्रांति
ब्रिक्स ने न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) के रूप में एक बड़ा प्रयोग किया है। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को पश्चिमी शर्तों से मुक्त वित्तीय विकल्प देना है। भारत की दृष्टि में यह बैंक केवल एक फंडिंग एजेंसी नहीं, बल्कि वैश्विक आर्थिक ढांचे को बहुध्रुवीय बनाने का हथियार है। यदि भविष्य में ब्रिक्स मुद्रा (common currency) की दिशा में ठोस कदम उठाए जाते हैं तो डॉलर-आधारित व्यवस्था के लिए यह सबसे बड़ा झटका होगा।
वैश्विक दक्षिण की आवाज़
भारत लगातार यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि ब्रिक्स केवल पांच देशों का मंच नहीं बल्कि पूरे वैश्विक दक्षिण की आवाज़ है। अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के छोटे देश पश्चिमी शक्तियों द्वारा उपेक्षित रहे हैं। भारत इन देशों की आकांक्षाओं को सामने लाकर ब्रिक्स को एक वास्तविक जनपक्षीय मंच बनाना चाहता है। यही वजह है कि भारत ने ब्रिक्स विस्तार का समर्थन किया और नए देशों की सदस्यता पर ज़ोर दिया।
भारत का कूटनीतिक कौशल
भारत का सबसे बड़ा बल उसकी रणनीतिक स्वायत्तता है। न तो पूरी तरह अमेरिका का पक्षधर और न ही चीन-रूस खेमे में बंधा हुआ। यही संतुलन भारत को ब्रिक्स में विश्वसनीय और स्वाभाविक नेता बनाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कूटनीति ने यह संदेश दिया है कि भारत पश्चिम और पूर्व, दोनों के साथ अपने हित साध सकता है, बशर्ते राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हों।
भविष्य की दिशा
आने वाले वर्षों में ब्रिक्स का विस्तार और मज़बूत होगा। नई मुद्रा, डिजिटल भुगतान व्यवस्था और तकनीकी सहयोग इसे पश्चिमी संस्थाओं के विकल्प के रूप में खड़ा करेंगे। भारत की भूमिका इसमें निर्णायक होगी—एक ओर अमेरिका, जापान और यूरोप के साथ संबंध बनाए रखना और दूसरी ओर ब्रिक्स और वैश्विक दक्षिण को नेतृत्व देना।
निष्कर्ष
भारत और ब्रिक्स मिलकर जिस तरह वैश्विक समीकरण बदल रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि दुनिया अब एकध्रुवीय नहीं बल्कि बहुध्रुवीय युग की ओर बढ़ रही है। भारत इस नए दौर में केवल एक भागीदार नहीं बल्कि एक नेतृत्वकर्ता के रूप में उभर रहा है। यह भूमिका न केवल उसकी कूटनीति की जीत है बल्कि 21वीं सदी में भारत को विश्वगुरु बनाने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है