पूनम शर्मा
भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल अंग्रेज़ों से मुक्ति का आंदोलन नहीं था, बल्कि यह भारतीय आत्मा और स्वाभिमान की पुनर्स्थापना का संघर्ष भी था। लाखों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी, यातनाएँ सही और अपने जीवन को देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दिया। लेकिन आज भी भारतीय राजनीति में एक ऐसा वर्ग मौजूद है, जो न केवल इस त्याग और बलिदान को कमतर आंकता है, बल्कि बार-बार उन नायकों का अपमान भी करता है जिन्होंने भारत को आज़ादी दिलाई। यह वर्ग है—भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ।
कम्युनिस्टों का स्वतंत्रता संग्राम से परे रुख
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव विदेशी विचारधारा पर रखी गई थी। सोवियत रूस की विचारधारा को आयात कर यहां की जमीन पर बोया गया। जब भारत स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक दौर से गुजर रहा था, तब कम्युनिस्ट पार्टियों का बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ों से सीधे टकराने से बचता रहा। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय जब पूरा देश आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ा था, तब कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आंदोलन का विरोध किया और अंग्रेज़ों के साथ खड़ी रही। क्या यह स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का अपमान नहीं था?
शहीदों के बलिदान के प्रति असम्मान
कम्युनिस्ट पार्टियों का रवैया आज भी नहीं बदला है। हाल ही में केरल में CPI नेता शुहैब मोहम्मद को केवल इसीलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने वीर सावरकर की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका की सराहना की थी। सवाल यह है कि अगर कोई भारतीय नेता, जिसने अपने जीवन के अनमोल वर्ष कालापानी की यातनाएँ सहकर बिताए, उसकी प्रशंसा करना पार्टी की विचारधारा के विरुद्ध है, तो ऐसी विचारधारा का भारतीय लोकतंत्र में स्थान क्यों होना चाहिए?
कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए भारत के स्वतंत्रता संग्राम और उसके शहीदों का बलिदान कभी भी प्राथमिकता नहीं रहा। उनका झुकाव हमेशा विदेशी विचारधाराओं और भारत-विरोधी ताकतों की ओर रहा है। यही कारण है कि ये दल कभी शहीद भगत सिंह, सावरकर या नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तरह के क्रांतिकारियों को उचित सम्मान नहीं देते।
लोकतंत्र में कम्युनिज़्म का विरोधाभास
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन विडंबना यह है कि इसी लोकतंत्र में वे पार्टियाँ भी फल-फूल रही हैं जो लोकतंत्र पर विश्वास ही नहीं करतीं। कम्युनिज़्म का इतिहास बताता है कि जहां-जहां यह स्थापित हुआ, वहां लोकतंत्र की हत्या हुई, बहुलतावाद समाप्त हुआ और दमनकारी शासन कायम हुआ। सोवियत संघ से लेकर चीन तक, क्यूबा से लेकर उत्तर कोरिया तक—कम्युनिस्ट शासन का मतलब था एक-दलीय तानाशाही।
अमेरिका जैसे सशक्त लोकतंत्र में आज कोई कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में नहीं है। वहां की राजनीतिक व्यवस्था ने समझ लिया कि ऐसी विचारधारा लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर देती है। यदि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देश कम्युनिस्ट दलों को अपनी राजनीति का हिस्सा नहीं बनने देते, तो भारत जैसे संवेदनशील और विविधता-भरे देश को क्यों इस खतरे को अपने भीतर पालना चाहिए?
भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों का एजेंडा
आज भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ ज़्यादातर ऐसे मुद्दों के साथ खड़ी होती हैं, जो देश की अखंडता और एकता को चुनौती देते हैं। चाहे कश्मीर का सवाल हो, नक्सलवाद का समर्थन हो या फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की आलोचना करने वाली ताकतों के साथ खड़ा होना—कम्युनिस्ट दल हर जगह भारत के राष्ट्रीय हितों से टकराते दिखते हैं।
यह भी देखा गया है कि ये दल अक्सर “ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेज़” यानी भारत को तोड़ने वाली ताकतों के साथ खड़े होते हैं। लेकिन जब कोई उनके बीच से ही राष्ट्रवादी विचारधारा या स्वतंत्रता सेनानियों की प्रशंसा करता है, तो तुरंत उसे सज़ा दी जाती है। यह साफ़ दिखाता है कि इनका असली एजेंडा भारत के लोकतंत्र और राष्ट्रवाद को कमजोर करना है।
क्यों होनी चाहिए पाबंदी?
अब सवाल उठता है—क्या ऐसी पार्टियों को भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का हिस्सा बने रहने की अनुमति दी जानी चाहिए?
लोकतंत्र-विरोधी सोच: कम्युनिस्ट विचारधारा लोकतंत्र की मूल आत्मा से मेल नहीं खाती।
विदेशी मानसिकता: यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति से नफरत करते हुए विदेशी विचारों को थोपने की कोशिश करती है।
राष्ट्रीय सुरक्षा खतरा: नक्सलवाद और अलगाववादी आंदोलनों से इनका अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष संबंध बार-बार सामने आता रहा है।
शहीदों का अपमान: स्वतंत्रता संग्राम और उसके नायकों की लगातार उपेक्षा इन दलों की असली मानसिकता उजागर करती है।
जब दुनिया के बड़े लोकतंत्र कम्युनिस्ट पार्टियों को राजनीतिक व्यवस्था में जगह नहीं देते, तो भारत को भी साहस दिखाते हुए ऐसे दलों पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत के लोकतंत्र को सशक्त और सुरक्षित बनाए रखने के लिए जरूरी है कि ऐसी ताकतों को पहचानकर रोक दिया जाए जो लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र को ही कमजोर करने का काम करती हैं। कम्युनिस्ट पार्टियाँ लंबे समय से भारत की जड़ों को काटने की कोशिश कर रही हैं। इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इन्हें राजनीति में बने रहने की अनुमति दी जाए?
आज समय आ गया है कि भारत स्पष्ट निर्णय ले—क्या हम अपने लोकतंत्र को उसी विचारधारा के हवाले कर सकते हैं जिसने हर जगह आज़ादी और मानवाधिकारों को कुचला है? उत्तर साफ है—कम्युनिस्ट पार्टियों का भारत की राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।