पूनम शर्मा
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत और चीन से आने वाले सामानों पर टैरिफ को दोगुना कर देने के बाद एशिया की सबसे बड़ी दो अर्थव्यवस्थाएँ—भारत और चीन—तेज़ी से नज़दीक आती दिख रही हैं। यह नज़दीकी केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि कूटनीतिक और रणनीतिक स्तर पर भी आकार ले रही है। सीमा पार व्यापार की बहाली से लेकर सीधी उड़ानों के पुनः संचालन और उच्चस्तरीय वार्ताओं तक, कई संकेत हैं कि दोनों देश मिलकर एशियाई सहयोग का एक नया खाका तैयार कर रहे हैं।
अमेरिका की आक्रामक नीति और एशियाई जवाब
ट्रम्प प्रशासन की टैरिफ नीति का सीधा असर भारत और चीन पर पड़ा है। रूस से कच्चे तेल के आयात और उससे जुड़ी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर लगाए गए प्रतिबंधों ने दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर दबाव बनाया। नतीजतन, नई दिल्ली और बीजिंग दोनों ही इस दबाव को संतुलित करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग बढ़ाने को मजबूर हुए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यह स्थिति एशियाई देशों को अमेरिकी प्रभुत्व से हटकर नीति-निर्माण की स्वायत्तता हासिल करने की ओर प्रेरित कर रही है।
सीमा पार व्यापार का नया अध्याय
भारत और चीन ने लिपुलेख (उत्तराखंड), शिपकी ला (हिमाचल) और नाथू ला (सिक्किम) जैसे पर्वतीय मार्गों से सीमांत व्यापार बहाल करने का निर्णय लिया है। यद्यपि इन मार्गों से होने वाला व्यापार परिमाण में छोटा है, परंतु प्रतीकात्मक दृष्टि से यह काफ़ी बड़ा कदम माना जा रहा है। दरअसल, यह निर्णय दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली की दिशा में भी संकेत करता है।
सीधी उड़ानों की वापसी
कोविड-19 महामारी और 2020 के गलवान संघर्ष के बाद भारत-चीन के बीच सीधी वाणिज्यिक उड़ानें ठप हो गई थीं। अब दोनों देशों की सरकारें इन्हें पुनः चालू करने की तैयारी में हैं। यह केवल यात्रियों और व्यवसायियों के लिए राहत की खबर नहीं है, बल्कि इससे कूटनीतिक संवाद और जनस्तर पर संपर्क को भी मजबूती मिलने की उम्मीद है। विश्लेषकों का मानना है कि जब दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र अपने नागरिकों को एक-दूसरे की धरती पर यात्रा की सुविधा देने लगें, तो यह द्विपक्षीय संबंधों के नरम पड़ने का संकेत होता है।
उच्चस्तरीय वार्ताओं का मंच
सबसे अहम पहलू है आने वाले हफ़्तों में होने वाली उच्चस्तरीय राजनयिक वार्ताएँ। चीन के विदेश मंत्री वांग यी भारत आने वाले हैं और वे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल से मुलाकात करेंगे। माना जा रहा है कि बातचीत में सीमा विवाद, व्यापार और क्षेत्रीय सुरक्षा जैसे मसले शामिल होंगे। यह पहली बार होगा जब गलवान संघर्ष (2020) के बाद दोनों पक्ष इतने उच्च स्तर पर सीधे आमने-सामने बैठेंगे।
इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चीन दौरा भी तय है। वे शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेंगे और संभव है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग से द्विपक्षीय मुलाकात भी हो। सात साल बाद होने वाली यह संभावित बैठक दोनों नेताओं के रिश्तों में नया मोड़ साबित हो सकती है।
व्यापार वार्ताएँ और नई संभावनाएँ
भारतीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, दोनों देश औपचारिक व्यापार वार्ताओं की तैयारी कर रहे हैं। इन वार्ताओं का फोकस रेयर अर्थ मैग्नेट्स, उर्वरक और फार्मास्यूटिकल्स पर रहेगा—ये ऐसे क्षेत्र हैं जो दोनों देशों की आपूर्ति श्रृंखला के लिए अहम हैं। हाल ही में चीन ने भारत को उर्वरक आपूर्ति में मदद भी दी है, जिसे सहयोग की दिशा में एक प्रतीकात्मक लेकिन महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
रणनीतिक परिप्रेक्ष्य
विश्लेषक मानते हैं कि यह नज़दीकी किसी स्थायी गठबंधन का संकेत नहीं है। भारत और चीन दोनों ही सीमा पर सैन्य सतर्कता बनाए हुए हैं और एक-दूसरे पर संदेह की छाया अब भी मौजूद है। लेकिन अमेरिका की अस्थिर व्यापार नीति ने दोनों को व्यावहारिक स्तर पर एक-दूसरे का सहारा लेने के लिए प्रेरित किया है।
दरअसल, यह स्थिति एशिया के भीतर एक नए रणनीतिक यथार्थ को जन्म दे रही है। अमेरिका और यूरोप की अनिश्चित नीतियों के बीच भारत और चीन सहयोग का रास्ता खोज रहे हैं, जो भविष्य में एशियाई देशों को सामूहिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
निष्कर्ष
भारत और चीन की यह नज़दीकी तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम है, लेकिन इसके दीर्घकालिक असर दूरगामी हो सकते हैं। सीमा व्यापार, सीधी उड़ानें और उच्चस्तरीय वार्ताएँ यह संकेत देती हैं कि एशिया की दो सबसे बड़ी शक्तियाँ अब केवल प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि कुछ परिस्थितियों में सहयोगी भी हो सकती हैं। यह समीकरण न केवल द्विपक्षीय संबंधों की दिशा तय करेगा, बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन को भी नई परिभाषा दे सकता है।