वाइरमुथु का भगवान राम पर बयान, मचा विवाद

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पूनम शर्मा
तमिल साहित्य जगत के प्रसिद्ध कवि–गीतकार वाइरमुथु एक बार फिर सुर्खियों में हैं, और इस बार कारण है उनका भगवान राम को लेकर दिया गया बयान। कवि चक्रवर्ती कांबन पुरस्कार ग्रहण करते हुए उन्होंने कहा कि तमिल कवि कांबन ने भगवान राम को ऐसा दर्शाया जैसे सीता के अभाव में उनकी मानसिक स्थिरता प्रभावित हो गई थी। उन्होंने इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 84 से जोड़ा, जो कहती है कि मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्ति का अपराध अपराध नहीं माना जाता।

यह टिप्पणी सुनते ही विवाद भड़क उठा—धार्मिक संगठनों, राजनीतिक दलों और आम जनमानस ने इसे भगवान राम का अपमान और हिंदू आस्था पर हमला बताया।

1. वाइरमुथु का दृष्टिकोण और कांबन का साहित्य

तमिलनाडु में 12वीं सदी के कवि कांबन को “कवी चक्रवर्ती” यानी ‘कवियों के सम्राट’ कहा जाता है। उनकी ‘रामावतारम’ तमिल में रामकथा का सबसे लोकप्रिय संस्करण है। कांबन ने अपने ग्रंथ में भगवान राम को मानवीय भावनाओं से भरपूर चरित्र के रूप में दिखाया है—शोक, क्रोध, प्रेम और करुणा, सभी रूपों में।

वाइरमुथु का दावा है कि कांबन ने राम को इस तरह चित्रित किया जैसे सीता के लापता होने के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया हो। उन्होंने इसे IPC सेक्शन 84 से जोड़कर कहा कि कांबन ने “राम को बचा लिया” क्योंकि यदि वह अस्थिर मनःस्थिति में थे, तो उनके कार्य अपराध की श्रेणी में नहीं आते।

साहित्यिक दृष्टि से यह एक व्याख्या हो सकती है, लेकिन भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में यह दृष्टिकोण अत्यंत संवेदनशील है, क्योंकि राम केवल साहित्यिक पात्र नहीं, बल्कि करोड़ों हिंदुओं के आराध्य हैं।

2. प्रतिक्रियाओं का स्वर

वाइरमुथु की टिप्पणी के बाद तमिलनाडु और अन्य राज्यों में कई धार्मिक व सामाजिक संगठनों ने विरोध जताया। उनका कहना है कि यह केवल साहित्यिक बहस नहीं, बल्कि जानबूझकर आस्था को ठेस पहुंचाने का प्रयास है।

हिंदू संगठनों ने इसे “राम का अपमान” करार दिया।

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तमिलनाडु की ड्रविड़ राजनीति में हिंदू देवी–देवताओं पर कटाक्ष करना या उन्हें मानवीय सीमाओं में बांधना, लंबे समय से एक रणनीति रही है। इससे राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है और “ड्रविड़ बनाम आर्य” विमर्श को हवा मिलती है।

सोशल मीडिया पर भी वाइरमुथु को लेकर गुस्सा और नाराजगी स्पष्ट दिखी।

3. वाइरमुथु के विवादों का इतिहास

यह पहली बार नहीं है जब वाइरमुथु विवादों में आए हैं।

2018 में अंडाल विवाद: उन्होंने कवि–संत अंडाल के बारे में एक शोध का हवाला देते हुए उन्हें “देवदासी परंपरा” से जोड़ा, जिससे तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में व्यापक विरोध हुआ।

MeToo आरोप: कई महिलाओं, जिनमें गायक चिन्मयी श्रीपाड़ा भी शामिल हैं, ने उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए।

साहित्य और इतिहास पर उनकी टिप्पणियां अक्सर इस तरह की होती हैं कि वे आस्था और राजनीति, दोनों को भड़काती हैं।

इन घटनाओं से यह धारणा बनी है कि वाइरमुथु केवल साहित्यकार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विमर्श को उकसाने वाले एक सक्रिय विचारक भी हैं।

4. साहित्यिक स्वतंत्रता बनाम धार्मिक संवेदनशीलता

यह विवाद एक बार फिर यह सवाल उठाता है कि साहित्यिक स्वतंत्रता की सीमा कहां तक है।

साहित्यकार का दृष्टिकोण: लेखक और कवि अक्सर चरित्रों को नए नजरिए से देखते हैं, ताकि पाठक उन पात्रों की मानवीय कमजोरियों को समझ सकें।

धार्मिक दृष्टिकोण: भारत में धार्मिक चरित्र केवल साहित्यिक नायक नहीं होते; वे पूजा, भक्ति और सांस्कृतिक पहचान का केंद्र होते हैं। इसीलिए उनके बारे में टिप्पणी करते समय संवेदनशीलता जरूरी है।

पश्चिमी समाज में धार्मिक ग्रंथों के पात्रों की पुनर्व्याख्या अपेक्षाकृत आसानी से स्वीकार की जाती है, लेकिन भारत में यह सीधा आस्था पर प्रहार माना जाता है।

5. ड्रविड़ राजनीति और धार्मिक विमर्श

तमिलनाडु की ड्रविड़ राजनीति का एक महत्वपूर्ण पहलू है—हिंदू धर्म के पौराणिक पात्रों की आलोचना।

ड्रविड़ आंदोलन के कई नेताओं ने रामायण को “आर्य बनाम द्रविड़ संघर्ष” के रूप में पेश किया।

रावण को कभी–कभी “द्रविड़ नायक” के रूप में महिमामंडित किया जाता है, जबकि राम को उत्तर भारतीय आक्रमणकारी बताया जाता है।

इस पृष्ठभूमि में वाइरमुथु का बयान केवल साहित्यिक व्याख्या नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत भी माना जा सकता है।

कई आलोचकों का कहना है कि इस तरह के बयान DMK समर्थक वर्ग में लोकप्रियता बढ़ाने का साधन बनते हैं, क्योंकि इससे पार्टी की “ड्रविड़ पहचान” को मजबूती मिलती है।
6. संभावित प्रभाव

इस विवाद के कई असर हो सकते हैं:

राजनीतिक ध्रुवीकरण: बीजेपी और अन्य हिंदू समर्थक दल इस मुद्दे को सांस्कृतिक अपमान के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं।

सांस्कृतिक बहस: साहित्य और धर्म के बीच संतुलन पर नए सिरे से चर्चा होगी।

वाइरमुथु की छवि: एक ओर यह उन्हें “निर्भीक साहित्यकार” के रूप में पेश कर सकता है, तो दूसरी ओर उनके विरोधियों के लिए यह “आस्था विरोधी” होने का प्रमाण बनेगा।

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