“सनातन धर्म ने भारत को बर्बाद किया: एनसीपी नेता जितेन्द्र आव्हाड”
क्या सनातन धर्म बनाम हिंदू धर्म की बहस से भारत में एक नई राजनीतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत हो रही है?
पूनम शर्मा
महाराष्ट्र के वरिष्ठ एनसीपी (शरद पवार गुट) नेता और विधायक डॉ. जितेन्द्र आव्हाड के सनातन धर्म पर विवादित बयान ने देश में एक बार फिर से “हिंदू बनाम सनातन” की बहस को गरमा दिया है। उन्होंने सनातन धर्म को ‘विकृत सोच’ बताकर न केवल एक धर्म पर सवाल उठाया बल्कि भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने में गहरे पैठे विचार को चुनौती दी है।
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ एक बयान है या एक संगठित वैचारिक आंदोलन का संकेत है, जो भारत के हिंदू समाज में आंतरिक विभाजन और राजनीतिक पुनर्संरचना का प्रारंभ कर रहा है?
सनातन धर्म पर हमला या वैचारिक विमर्श?
आव्हाड ने कहा, “सनातन धर्म कोई धर्म नहीं, बल्कि एक सामाजिक शोषण का तंत्र है जिसने छत्रपति शिवाजी, संभाजी, फुले, शाहू, अंबेडकर जैसे महापुरुषों को हाशिए पर रखा या अपमानित किया।”
उन्होंने आगे कहा कि “लोगों को अब यह स्पष्ट कहना चाहिए कि सनातन धर्म की विचारधारा विकृत है।”
इस बयान को सीधे तौर पर हिंदू धर्म के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता क्योंकि आव्हाड स्वयं कहते हैं कि “हम हिंदू हैं, लेकिन सनातन नहीं।” यह वाक्य ही उस रणनीतिक वैचारिक विभाजन को जन्म देता है जिसका उद्देश्य शायद एक विशेष प्रकार के हिंदू मत को “अग्रगामी” और “सामाजिक न्याय समर्थक” बताकर एक नए राजनीतिक वर्ग को मजबूत करना है।
हिन्दू धर्म बनाम सनातन धर्म – एक कृत्रिम विभाजन?
ऐतिहासिक रूप से देखें तो सनातन धर्म और हिंदू धर्म को अलग-अलग नहीं माना जाता। सनातन शब्द का अर्थ है “शाश्वत”, और यह वैदिक, उपनिषदिक और पुराणिक परंपराओं की निरंतरता का प्रतीक है। ऋषि-मुनियों से लेकर आज के साधु-संतों तक, जो धर्म की बात करते हैं वह “सनातन धर्म” ही है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस “सनातन” को जातिवाद, मनुस्मृति, और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का पर्याय बताने का एक राजनीतिक प्रयास देखा गया है। यह प्रयास मुख्यतः दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्गों के मतों को एकजुट करने के लिए किया जा रहा है। इसमें हिंदू धर्म को दो टुकड़ों में बांटकर—एक “दमनकारी सनातन” और दूसरा “सुधारवादी प्रगतिशील”—एक नया राजनीतिक विमर्श खड़ा किया जा रहा है।
राजनीतिक प्रयोगशाला: महाराष्ट्र और दक्षिण भारत
तमिलनाडु में 2023 में उदयनिधि स्टालिन के ‘सनातन उन्मूलन’ वाले बयान ने जो राजनीतिक प्रयोग किया था, अब वही प्रयोग महाराष्ट्र जैसे राज्य में दोहराया जा रहा है।
डॉ. आव्हाड जैसे नेताओं के बयान इस बात का संकेत हैं कि यह कोई व्यक्तिगत विचार नहीं, बल्कि एक संगठित वैचारिक और चुनावी रणनीति का हिस्सा है।
द्रविड़ राजनीति की तरह अब ‘मराठा बहुजन’ राजनीति भी एक “सनातन-विरोधी” विमर्श तैयार कर रही है ताकि भाजपा और संघ के “हिंदुत्व” एजेंडे को कमजोर किया जा सके। यह केवल वोटबैंक की राजनीति नहीं, बल्कि भारतीय हिंदू समाज के भीतर विभाजन की राजनीति भी है।
डॉ. अंबेडकर और फुले का हवाला – ऐतिहासिक सच्चाई या चयनात्मक दृष्टि?
आव्हाड और उनके जैसे नेता बार-बार डॉ. अंबेडकर और फुले का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने जातिवाद और सामाजिक भेदभाव का विरोध किया था। लेकिन क्या उन्होंने सनातन धर्म को पूरी तरह नकार दिया था या उसके विशिष्ट स्वरूप की आलोचना की थी?
डॉ. अंबेडकर ने जहां मनुस्मृति का विरोध किया, वहीं उन्होंने रामायण, महाभारत, भगवद गीता और बौद्ध ग्रंथों को भी पढ़ाया और समझाया। उन्होंने हिंदू समाज को बदलने का प्रयास किया, न कि उसे पूरी तरह समाप्त करने का।
इसी तरह, फुले ने भी ब्राह्मणवाद के खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन उन्होंने हिंदू संस्कृति और लोक परंपराओं से अलगाव नहीं किया। इसलिए आज सनातन धर्म को सीधे तौर पर दलित विरोधी या केवल अत्याचार का प्रतीक कहना अति-सरलीकरण है।
भाजपा और संघ की प्रतिक्रिया – एक नया मोर्चा
भाजपा नेताओं ने आव्हाड के बयान को ‘हिंदू धर्म का अपमान’ बताते हुए कहा है कि यह कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की हिंदू विरोधी सोच का हिस्सा है। संघ परिवार इसे “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” पर हमला मान रहा है।
अब यह बहस केवल विचारधारा की नहीं रही, बल्कि चुनावी अस्त्र बन चुकी है। हर चुनाव में यह देखा जा रहा है कि ‘हिंदू एकता’ बनाम ‘वंचित वर्ग’ की राजनीति की रेखाएं कितनी स्पष्ट होती जा रही हैं।
सनातन बनाम सुधार या विभाजन की राजनीति?
डॉ. जितेन्द्र आव्हाड के बयान ने केवल एक ऐतिहासिक बहस को हवा नहीं दी, बल्कि यह सवाल भी खड़ा किया कि भारत के हिंदू समाज को बांटने की नई राजनीति की शुरुआत हो चुकी है।
“हिंदू धर्म सनातन है” — यह वाक्य अब केवल धार्मिक उद्घोषणा नहीं, बल्कि एक वैचारिक स्थिति बन चुका है।
आव्हाड के बयान और उससे जुड़ी बहस यह स्पष्ट करती है कि अब भारत की राजनीति ‘संविधान बनाम सनातन’, ‘सामाजिक न्याय बनाम सांस्कृतिक परंपरा’ और ‘हिंदू बनाम हिंदू’ की ओर बढ़ रही है। और यह ध्रुवीकरण आगे जाकर न केवल चुनावी परिणाम तय करेगा, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना को भी गहराई से प्रभावित करेगा।