पूनम शर्मा
“मैं धार्मिक नहीं हूँ लेकिन कोई धर्म पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की इजाजत नहीं देता…”
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अभय एस. ओका का यह बयान गणपति, छठ पूजा, नवरात्रि और कुंभ जैसे पवित्र हिंदू त्योहारों की परंपराओं को सीधे तौर पर संदिग्ध ठहराने जैसा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच यह बयान “पर्यावरण की रक्षा” के उद्देश्य से दिया गया है, या यह हिंदू आस्थाओं पर सुनियोजित वैचारिक हमला है?
धार्मिक स्वतंत्रता बनाम पर्यावरण—या सिर्फ हिंदू धर्म की आलोचना?
जस्टिस ओका ने कहा कि कोई भी धर्म आपको पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की अनुमति नहीं देता, और नदियों-समुद्रों में मूर्ति विसर्जन जैसे रीति-रिवाज पर्यावरण के खिलाफ हैं। लेकिन क्या यही तर्क केवल गणपति, छठ, नवरात्रि और कुंभ पर ही लागू होता है?
जब समुद्र में न्यूक्लियर टेस्ट किए जाते हैं, जब तेल कंपनियाँ समुद्री जीवन को नष्ट करती हैं, जब प्लास्टिक कचरे से नदियाँ जाम हो जाती हैं — तब कोई धार्मिक स्वतंत्रता की बात नहीं करता। न कोई न्यायाधीश बोलता है, न कोई वकील मुकदमा करता है। लेकिन जब बारी आती है हिंदू रीति-रिवाजों की, तब एकदम ‘पर्यावरण बचाओ’ ब्रिगेड सक्रिय हो जाती है।
क्या यह सिर्फ हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों को निशाना बनाने की रणनीति है?
मूर्ति विसर्जन की परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है। हिंदू धर्म में पहले मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं — नदी के किनारे की मिट्टी से, जो पूजा के बाद फिर उसी प्रकृति में मिल जाती थीं। यह प्रक्रिया न केवल पर्यावरण के अनुकूल थी, बल्कि आत्मशुद्धि, समर्पण और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक थी।
तो सवाल उठता है — असली समस्या मूर्तियाँ नहीं, बल्कि आधुनिक बाजार और रासायनिक रंगों और प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियाँ हैं। क्या न्यायाधीश ओका ने यह स्पष्ट किया कि वह केवल ‘आधुनिक प्रदूषक तत्वों’ के खिलाफ हैं, या उन्होंने समूची धार्मिक परंपरा को ही संदेह के दायरे में खड़ा कर दिया?
पर्यावरण की आड़ में हिंदू पर्वों को ही क्यों निशाना बनाया जाता है?
क्या जस्टिस ओका ने कभी बकरीद पर खून से लाल हुए नालों की बात की है? या हज यात्रा के दौरान उत्पन्न होने वाले कचरे, जल संकट और पर्यावरणीय दबावों पर ऐसे भाषण हुए? क्या क्रिसमस पर कटने वाले लाखों पेड़ों पर कोई चिंता प्रकट की गई? या फिर न्यू ईयर की रात पटाखों, शराब और शोर से भरे ‘धार्मिक-निरपेक्ष’ आयोजनों पर कोई सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी आई?
इस देश में अजान के लाउडस्पीकर को लेकर जब ध्वनि प्रदूषण की बहस चली, तो धर्मनिरपेक्षता की ढाल खड़ी हो गई। लेकिन जब बात गणपति विसर्जन या छठ पूजा की होती है, तब वही धर्मनिरपेक्षता मौन हो जाती है।
जस्टिस ओका ने स्वयं स्वीकार किया कि उन्होंने अपने निर्णयों में “ध्वनि प्रदूषण” को लेकर अनुच्छेद 25 के तर्क को खारिज कर दिया — यानी किसी भी धार्मिक प्रथा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं मिल सकता अगर वह ‘प्रदूषण’ फैलाए। लेकिन फिर यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाता कि क्या अज़ान या मजारों पर लाउडस्पीकर का दिन-रात उपयोग प्रदूषण की श्रेणी में नहीं आता?
कुंभ एवं गंगा: श्रद्धा या व्यर्थ खर्च?
जस्टिस ओका ने कुंभ मेले पर टिप्पणी करते हुए पूछा कि “उस त्योहार के कारण गंगा में क्या हुआ? कितने करोड़ रुपये खर्च हुए? क्या हम नदी को प्रदूषित नहीं कर रहे?”
यह बयान सिर्फ पर्यावरण की नहीं, बल्कि सनातन आस्था के सबसे पवित्र आयोजन की अवमानना जैसा है। कुंभ मेला सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की श्रद्धा, तप, साधना और आत्मिक उन्नयन का केंद्र है।
क्या पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर श्रद्धा का मखौल उड़ाना न्यायसंगत है? और क्या करोड़ों रुपये खर्च करना तभी गलत होता है जब वह हिंदू आयोजनों पर हो?
समाधान का रास्ता क्या सिर्फ ‘प्रतिबंध’ है?
अगर पर्यावरणीय संकट सच में है (और निश्चय ही है), तो इसका समाधान “त्योहार बंद करो” नहीं हो सकता। इसका समाधान है —
मूर्तियाँ मात्र मिट्टी की हों
मूर्तियों पर रासायनिक रंगों पर पूर्णतया प्रतिबंध हो
सार्वजनिक विसर्जन के लिए कृत्रिम तालाब बनें
जागरूकता अभियान चलाए जाएँ
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि मीडिया और न्यायपालिका के कुछ हिस्से केवल ‘हिंदू धर्म’ पर उपदेश देने में व्यस्त हैं, न कि समाधान सुझाने में।
क्या हिंदू धर्म को अपराधी साबित करने की कोशिश हो रही है?
आज की न्यायिक, बौद्धिक और मीडिया प्रवृत्ति एक ख़तरनाक दिशा में जा रही है — जहाँ हिंदू त्योहारों को “पर्यावरण शत्रु”, साधुओं को “संदिग्ध”, और आस्थावानों को “कट्टरपंथी” के रूप में चित्रित किया जा रहा है।
क्या यह अनायास है? या किसी गहरे वैचारिक एजेंडे की परिणति? धर्म और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी है। लेकिन जब केवल एक धर्म को कटघरे में खड़ा किया जाता है, तो वह संतुलन नहीं — एकपक्षीय वैमनस्य होता है।
अगर न्यायपालिका और बौद्धिक वर्ग सच में पर्यावरण की चिंता करते हैं, तो उन्हें सभी धर्मों, सभी रीति-रिवाजों और सभी प्रदूषण स्रोतों को एक समान दृष्टि से देखना होगा — ना कि सिर्फ गणपति, छठ और कुंभ को अपराधी बनाकर।