- अमेरिका, यूरोपीय संघ, सिंगापुर और हांगकांग सहित कई देशों ने हाल ही में भारतीय मसालों, डेयरी और समुद्री खाद्य उत्पादों पर मिलावट और रसायन अवशेषों का हवाला देते हुए प्रतिबंध या चेतावनी जारी की है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि यह भारत पर व्यापारिक दबाव बनाने की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा है, क्योंकि अमेरिका लंबे समय से चाहता है कि भारत अपने कृषि और डेयरी बाजार को अमेरिकी उत्पादों के लिए खोले।
- इससे पहले भी भारत की फार्मा इंडस्ट्री को बदनाम करने की कोशिश की गई थी, जिसमें आरोप बाद में निराधार साबित हुए, लेकिन तब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुकसान हो चुका था।
- भारत को जहां एक ओर इस वैश्विक दुष्प्रचार का कूटनीतिक जवाब देना चाहिए, वहीं दूसरी ओर जैविक खेती और गुणवत्ता नियंत्रण को प्राथमिकता देकर अपनी साख मजबूत करनी होगी।
पूनम शर्मा
भारत के कृषि उत्पादों को लेकर हाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो सवाल उठाए जा रहे हैं, वे केवल स्वास्थ्य सुरक्षा तक सीमित नहीं हैं—बल्कि यह पूरा मामला एक सुनियोजित वैश्विक रणनीति का हिस्सा लगता है, जिसमें अमेरिका प्रमुख भूमिका निभा रहा है। मसालों से लेकर डेयरी उत्पादों तक, भारत के तमाम निर्यातित खाद्य पदार्थों को लेकर यूरोपीय देशों, अमेरिका, सिंगापुर और हांगकांग ने संदेह जताया है, प्रतिबंध लगाए हैं और उन्हें वापस भी मंगवाया है।
लेकिन प्रश्न यह है कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि इतने सारे देश एक साथ भारत के कृषि उत्पादों के खिलाफ खड़े हो गए? क्या यह सिर्फ गुणवत्ता और स्वास्थ्य मानकों की बात है या इसके पीछे एक गहरी भू-राजनीतिक चाल है?
मसाले और मिलावट का मुद्दा
यूरोपीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण (EFSA) ने भारत के 400 से अधिक खाद्य उत्पादों पर यह कहकर प्रतिबंध लगा दिया कि इनमें ‘जहरीले अवशेष’, ‘कैंसरकारी रसायन’, ‘कीटनाशकों के अंश’ और ‘बैक्टीरिया’ पाए गए हैं। समुद्री भोजन में सट्टेपाइटिस, हल्दी में रसायन, स्नैक्स में मिलावट और मसालों में अतिरिक्त रंग के आरोप लगाए गए हैं।
हांगकांग ने एमडीएच और एवरेस्ट मसालों को कैंसर पैदा करने वाला कहकर प्रतिबंधित कर दिया, तो वहीं सिंगापुर ने भी भारतीय इंस्टेंट खाद्य उत्पादों पर अलर्ट जारी कर दिया। यहां तक कि हल्दीराम के उत्पादों पर भी सवाल उठे, हालांकि कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आए।
अमेरिका की छिपी रणनीति: ट्रेड डील का दबाव
इस प्रोपेगेंडा के पीछे अमेरिका की रणनीति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अमेरिका लंबे समय से भारत से चाहता रहा है कि वह अपने कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए भारतीय बाज़ार खोले। लेकिन भारत ने इसे स्पष्ट रूप से नकार दिया है—खासतौर पर डेयरी उत्पादों को लेकर, क्योंकि भारत में गाय केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक महत्व भी रखती है।
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भारत सरकार ने यह साफ कर दिया है कि पश्चिमी देशों की तरह हम डेयरी उद्योग को महज फैक्ट्री नहीं मानते, जहाँ जानवरों को कृत्रिम तरीके से दूध के लिए प्रताड़ित किया जाता है। अमेरिका में गाय के पेट में छेद कर फीड डालने जैसी अमानवीय पद्धतियों को भारत में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
इसके अतिरिक्त, अमेरिका चाहता था कि भारत कृषि उत्पादों पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म करे, ताकि अमेरिकी किसान वैश्विक बाज़ार में ‘प्रतिस्पर्धा’ कर सकें। लेकिन भारत ने यह भी ठुकरा दिया क्योंकि ये सब्सिडी भारत के करोड़ों किसानों की सामाजिक सुरक्षा का हिस्सा हैं।
क्या यह फार्मा इंडस्ट्री की तरह एक और हमला है?
इससे पहले फार्मा सेक्टर को लेकर भी भारत पर ऐसा ही दबाव बनाया गया था। भारत के खांसी सिरप को लेकर खबरें फैलाई गई थीं कि वह जानलेवा है, लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय लैब में उसकी जांच हुई तो कोई दोष नहीं मिला। तब तक भारत की फार्मा छवि को काफी नुकसान हो चुका था।
अब यही फार्मूला भारतीय कृषि उत्पादों पर आज़माया जा रहा है।
समाधान: आत्ममंथन और जैविक खेती की ओर
जहाँ एक ओर यह पूरा मामला अमेरिका और पश्चिमी देशों की साजिश लगता है, वहीं भारत को यह भी स्वीकार करना होगा कि घरेलू स्तर पर भी खाद्य सुरक्षा को लेकर कमज़ोरियां हैं।
यह समय है कि भारत जैविक खेती को बढ़ावा दे, कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग पर नियंत्रण लगाए और उत्पादन की गुणवत्ता में वैश्विक मानकों का पालन करे। केंद्र और राज्य सरकारों को किसानों को जैविक खेती के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए, साथ ही उन्हें बाज़ार में उचित दाम दिलाने के उपाय करने चाहिए।
भारत सरकार पहले ही कई योजनाएं जैसे “परम्परागत कृषि विकास योजना” (PKVY) और “राष्ट्रीय जैविक खेती मिशन” (MOVCDNER) चला रही है, जिन्हें और प्रभावी बनाने की जरूरत है।
भारत को न केवल टिकना है, बल्कि जीतना है
आज भारतीय कृषि उत्पादों के खिलाफ जो अंतरराष्ट्रीय प्रोपेगेंडा चलाया जा रहा है, वह केवल व्यापारिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक मूल्यों पर सीधा हमला है।
लेकिन भारत अब 1990 वाला भारत नहीं रहा। आज हमारे पास अपनी बात रखने की ताकत भी है और विकल्प भी। इसलिए यह जरूरी है कि एक तरफ जहाँ हम अपनी गुणवत्ता सुधारें, वहीं दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस प्रोपेगेंडा का मुंहतोड़ जवाब भी दें।
भारत के मसाले और दूध की मिठास को दुनिया यूं ही नहीं भूली है, और न ही भूलेगी।