पूनम शर्मा
भारत विविधताओं का देश है—यह वाक्य अब एक क्लिच बन चुका है, लेकिन इसमें निहित सच्चाई आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी आज़ादी के समय थी। भाषाएँ बोलियां , संस्कृति और धर्म—इन सभी में विविधता भारत की आत्मा में रची-बसी है। पर दुर्भाग्यवश, यही विविधता अब कुछ ताकतों के लिए एक हथियार बन गई है—एक ऐसा उपकरण जिससे वे भारत की अखंडता और एकता पर प्रहार कर रहे हैं। हाल के वर्षों में जिस तरह से भाषायी विवादों को हवा दी गई है, वह केवल भाषायी अस्मिता का मुद्दा नहीं, बल्कि एक सुनियोजित विभाजनकारी षड्यंत्र का हिस्सा प्रतीत होता है।
महाराष्ट्र में हाल ही में कुछ ऐसे घटनाक्रम सामने आए हैं जहाँ हिंदी भाषा के विरोध को मराठी अस्मिता की रक्षा के नाम पर उभारा गया। सिनेमा, विज्ञापन, रेलवे प्लेटफॉर्म, यहाँ तक कि अस्पतालों और स्कूलों में हिंदी के प्रयोग पर सवाल खड़े किए गए। कहा गया कि यह “मराठी अस्मिता” के खिलाफ है। परंतु असल सवाल यह है कि क्या यह विरोध केवल भाषा को लेकर है या इसके पीछे कोई और मकसद छिपा है?
ऐसे कई संगठन और राजनीतिक दल हैं जो क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर लोगों की भावनाओं से खेलते हैं, जबकि उनका असली उद्देश्य राजनीतिक वर्चस्व और वोटबैंक बनाना होता है। मराठी बनाम हिंदी का यह झगड़ा भी कहीं न कहीं उसी राजनीति का हिस्सा है। क्षेत्रीय अस्मिता की आड़ में ये शक्तियां राष्ट्रीय अस्मिता को कमज़ोर कर रही हैं।
भाषाएँ आपस में दुश्मन नहीं हैं
भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ जैसी क्षेत्रीय भाषाएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। भाषाएं भारत की सांस्कृतिक विविधता की परिचायक हैं, न कि एक-दूसरे की विरोधी। मगर दुर्भाग्य यह है कि कुछ तत्व इन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं—जैसे एक भाषा दूसरी भाषा को दबा रही हो।
यह एक खतरनाक मानसिकता है जो भारत को भारत बनाने वाली विविधता को ही निशाना बना रही है। ऐसे में जरूरी है कि हम यह समझें कि हिंदी का विरोध, मराठी का विरोध नहीं है और न ही मराठी का समर्थन, हिंदी के अपमान का कारण बनना चाहिए।
विदेशी फंडिंग और भारत विरोधी एजेंडा
इस पूरे भाषायी उन्माद के पीछे कुछ ऐसे प्रमाण भी सामने आए हैं जो विदेशी फंडिंग और भारत विरोधी संगठनों की ओर इशारा करते हैं। कुछ एनजीओ और सोशल मीडिया ग्रुप्स लगातार हिंदी के खिलाफ नफरत फैलाते हैं और “एक राष्ट्र, एक भाषा” की अवधारणा को सांस्कृतिक आक्रमण के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
इनका मकसद केवल भारत की सांस्कृतिक विविधता की रक्षा नहीं है, बल्कि भारत की अखंडता को तोड़ना है। वे चाहते हैं कि देश के लोग भाषा, जाति, क्षेत्र के नाम पर बंटे रहें, ताकि भारत कभी एकजुट होकर विश्व शक्ति बनने की दिशा में आगे न बढ़ सके।
शिक्षा और प्रशासन में भाषा का उपयोग – संतुलन आवश्यक
यह सही है कि प्रशासन, न्याय और शिक्षा में स्थानीय भाषाओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। यह जनसामान्य की भागीदारी को बढ़ाता है और लोकतंत्र को सशक्त बनाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद की भाषा यानी हिंदी को दुश्मन मान लिया जाए।
अगर हम तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल या केरल की ओर देखें, तो वहां भी क्षेत्रीय भाषाओं का वर्चस्व है लेकिन कहीं न कहीं हिंदी को एक “दूसरी सत्ता” के रूप में देखा जाता है। यह दृष्टिकोण भारत को एकजुट करने में बाधक बन सकता है। हमें ऐसे संतुलन की आवश्यकता है जहां हर भाषा को सम्मान मिले, लेकिन किसी को भी देश को तोड़ने का बहाना न मिल सके।
बॉलीवुड और भाषायी राजनीति
मनोरंजन जगत भी इस भाषायी जंग से अछूता नहीं रहा है। बॉलीवुड, जो मूलतः हिंदी सिनेमा है, को भी अब “हिंदी वर्चस्ववाद” के नाम पर निशाना बनाया जा रहा है। महाराष्ट्र में कभी-कभी स्थानीय फिल्म उद्योग यानी मराठी सिनेमा को हिंदी सिनेमा के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। हालांकि वास्तविकता यह है कि दोनों ही उद्योगों में सहयोग और पारस्परिक सम्मान का इतिहास रहा है।
परंतु अब इस सहयोग को भी संदेह के घेरे में लाया जा रहा है—यह कहते हुए कि “हिंदी सिनेमा मराठी सिनेमा को निगल रहा है”। ऐसे बयान न केवल गैर-जरूरी हैं बल्कि सांस्कृतिक टकराव को बढ़ावा देते हैं।
राष्ट्रीय एकता के लिए भाषायी समरसता आवश्यक
यह आवश्यक है कि भारत के नागरिक भाषा को सम्मान का विषय मानें, लेकिन राजनीति का औजार न बनने दें। भाषा संस्कृति की वाहक होती है, लेकिन जब उसे हथियार बना दिया जाए तो वह संस्कृति को नष्ट कर सकती है।
हमें यह समझने की आवश्यकता है कि भारत की शक्ति उसकी भाषायी विविधता में है, न कि एक भाषा को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने में। हिंदी, मराठी, तमिल, बंगाली, उर्दू—ये सब भारत की बेटियां हैं। किसी एक का अपमान, पूरी संस्कृति का अपमान है।
निष्कर्ष: षड्यंत्र के खिलाफ जनजागरण की जरूरत
भाषायी विवादों को केवल भाषाई नहीं समझना चाहिए। इनके पीछे छिपे राजनीतिक, वैचारिक और कभी-कभी विदेशी एजेंडों को उजागर करना आवश्यक है। जनता को समझना होगा कि भाषा की लड़ाई दरअसल सत्ता, वर्चस्व और विचारधारा की लड़ाई बन गई है।
यदि हम समय रहते नहीं जागे, तो भाषा के नाम पर वह दीवार खड़ी हो जाएगी जो हमें क्षेत्रीय खांचों में बांट देगी और राष्ट्र की आत्मा को क्षत-विक्षत कर देगी। हमें एकता के सूत्र को मजबूत करना है, और इसके लिए आवश्यक है कि भाषा को सम्मान दें, लेकिन विभाजनकारी षड्यंत्रों को नकारें।