मीडिया की भूमिका एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
राष्ट्रवादी संगठनों के प्रति उत्तरदायित्व और निष्पक्षता की आवश्यकता
पूनम शर्मा
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। यह वह संस्था है, जिसे समाज, सत्ता और नागरिकों के बीच संवाद और संतुलन बनाए रखने का दायित्व सौंपा गया है। लेकिन जब यही मीडिया किसी संगठन विशेष के प्रति पूर्वग्रह से ग्रसित हो जाए, जब वह विचारधारात्मक पक्षपात के चलते तथ्यों को तोड़े-मरोड़े, और जब वह जनता को सच दिखाने की जगह ‘एजेंडा’ परोसने लगे, तब उसके अस्तित्व पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी संगठन है, जिसकी स्थापना 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। संघ ने पिछले लगभग एक शताब्दी में शिक्षा, सेवा, सामाजिक समरसता, स्वावलंबन, आपदा राहत, और राष्ट्र निर्माण के हर पहलू में सक्रिय भूमिका निभाई है। परंतु मुख्यधारा की भारतीय मीडिया ने संघ के इन बहुआयामी योगदानों की बजाय प्रायः उसे ‘कट्टरपंथी’, ‘रूढ़िवादी’ और ‘संकीर्ण सोच वाला’ संगठन के रूप में चित्रित किया है। यह मीडिया की निष्पक्षता और उत्तरदायित्व की गंभीर कमी को दर्शाता है।
1. मीडिया की मौलिक भूमिका क्या होनी चाहिए?
लोकतंत्र में मीडिया का कार्य केवल समाचार देना नहीं है, बल्कि सत्य के विविध पहलुओं को संतुलित रूप से प्रस्तुत करना, सत्ता की नीतियों पर सवाल उठाना, समाज के कमजोर वर्गों की आवाज़ बनना, और राष्ट्र निर्माण में वैचारिक संवाद को आगे बढ़ाना भी उसका कर्तव्य है।
यदि मीडिया अपने इस धर्म से भटककर किसी विचारधारा विशेष का प्रतिनिधि बन जाए, तो वह पत्रकारिता नहीं, प्रचारतंत्र बन जाता है।
2. संघ के प्रति मीडिया का ऐतिहासिक दृष्टिकोण
गांधीजी की हत्या के बाद 1948 में संघ पर लगाए गए प्रतिबंध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने मीडिया को एक औजार की तरह इस्तेमाल किया। समाचार पत्रों में संघ को हिंसक, सांप्रदायिक और अराजक संगठक बताने की मुहिम चलाई गई।
हालाँकि न्यायालयों ने बाद में संघ को निर्दोष बताया, फिर भी मीडिया की उस ऐतिहासिक दुर्भावना का असर आज भी दिखाई देता है।
1950 के दशक से लेकर 1990 के दशक तक, जब तक कांग्रेस और वामपंथी ताकतों का मीडिया पर पूर्ण वर्चस्व रहा, तब तक संघ की सकारात्मक छवि को जानबूझकर दबाया गया। यहाँ तक कि आपातकाल के विरोध में संघ की भूमिका को भी नजरंदाज किया गया।
3. संघ: सेवा, संगठन और समर्पण का परिचायक
भारत में जब-जब प्राकृतिक आपदाएं आई हैं – चाहे वह 1971 का ओडिशा चक्रवात हो, 2001 का गुजरात भूकंप हो या 2015 की चेन्नई की बाढ़ – संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले राहत कार्यों में जुटे। सेवा भारती जैसे संगठनों के माध्यम से संघ 10,000 से अधिक केंद्रों के माध्यम से स्वास्थ्य, शिक्षा, एवं स्वरोजगार के क्षेत्रों में बिना किसी सरकारी मदद के कार्य करता है।
संघ से जुड़े संगठन – जैसे ABVP (छात्र संगठन), भारतीय मजदूर संघ (ट्रेड यूनियन), विद्या भारती (शिक्षा), वनवासी कल्याण आश्रम (आदिवासी विकास), आदि – देश के कोने-कोने में काम कर रहे हैं।
पर क्या कभी इन संगठनों के योगदान को मीडिया ने प्रमुखता से दिखाया?
4. मीडिया का वैचारिक पूर्वग्रह
आज भी मुख्यधारा के कई अंग्रेज़ी और हिंदी मीडिया संस्थान संघ को सिर्फ ‘हिंदुत्ववादी संगठन’ या ‘राइट विंग एजेंडा’ के रूप में पेश करते हैं। वे उसकी सामाजिक-आर्थिक सोच, राष्ट्रीय एकता की अवधारणा, या वैचारिक परिपक्वता को स्थान नहीं देते।
उदाहरण के लिए, संघ ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई, सभी जातियों को पुजारी बनाने की वकालत की, और मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश को समर्थन दिया – पर इन प्रयासों को कभी सकारात्मक रूप में दिखाया गया?
5. वैकल्पिक मीडिया की आवश्यकता क्यों पड़ी?
मीडिया द्वारा लगातार बहिष्कृत किए जाने के कारण संघ को मजबूरन वैकल्पिक मंचों की ओर रुख करना पड़ा। पंचजन्य, ऑर्गनाइज़र, स्वदेश, राष्ट्रधर्म, विवेक जैसी पत्रिकाएं इसी सोच की उपज हैं – जिनका उद्देश्य है राष्ट्रवादी विचार को समाज के समक्ष तार्किक और संतुलित रूप में रखना।
आज डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के दौर में संघ विचार परिवार अपने स्वयं के यूट्यूब चैनल, वेबसाइट, और ब्लॉग्स के माध्यम से संवाद स्थापित कर रहा है। यह संवाद इसलिए जरूरी है, क्योंकि मुख्यधारा का मीडिया उनके लिए द्वार बंद कर चुका है।
6. पत्रकारिता बनाम एजेंडा
पत्रकारिता का उद्देश्य तथ्य प्रस्तुत करना है, परंतु जब मीडिया विश्लेषण की बजाय आलोचना का औजार बन जाए, तो उसे पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता।
उदाहरण के तौर पर, कन्हैया कुमार ने दावा किया कि गुरु गोलवलकर ने मुसोलिनी से मुलाकात की थी – जो पूर्णतः असत्य था। लेकिन किसी भी प्रतिष्ठित मीडिया हाउस ने इस झूठ का खंडन नहीं किया, क्योंकि इससे उनका ‘संघ-विरोधी नैरेटिव’ कमजोर पड़ता।
क्या यह पत्रकारिता का उदाहरण है या वैचारिक छल का?
7. संघ को समझने की ईमानदार कोशिश क्यों जरूरी है?
संघ एक ऐसा संगठन है जो किसी सत्ता केंद्र का मोहताज नहीं रहा। इसने भूमिगत रहकर, नींव की ईंट बनकर, संस्कृति की चेतना को जीवित रखते हुए देश को दिशा देने का कार्य किया है।
मोदी, योगी, भागवत, दत्तात्रेय होसबोले, अटल बिहारी वाजपेयी – ये सब उसी संगठन की उपज हैं, जिसमें न वंशवाद है, न पदलोभ।
यदि मीडिया इस संगठन को केवल ‘सांप्रदायिक एजेंडा’ के नजरिए से देखेगा, तो वह देश की आधी से अधिक जनता की भावनाओं और आत्मगौरव का अपमान करेगा।
8. constructive journalism की आवश्यकता
आज जरूरत है एक नवीन पत्रकारिता की, जो न केवल आलोचना करे, बल्कि सकारात्मक पहलुओं को भी उजागर करे। यदि संघ के सेवा कार्यों की खबरें भी ‘प्रचार’ समझी जाएं, तो मीडिया अपनी भूमिका का मज़ाक बना रहा है।
भारत एक विविधता से भरा हुआ राष्ट्र है, यहां कई विचारधाराएं, परंपराएं और भावनाएं सह-अस्तित्व में हैं। इसलिए मीडिया का कर्तव्य है कि वह सभी धाराओं को सम्मान और स्थान दे, न कि केवल वामपंथी या ‘सेक्युलर’ खांचे क
वैचारिक ईमानदारी की पुकार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कोई एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक विचार आंदोलन है – जो सेवा, संस्कार और संगठन के त्रिवेणी संगम से जन्मा है। यदि मीडिया इसके योगदान को अनदेखा करता है, या उसे विकृत रूप में प्रस्तुत करता है, तो यह न केवल पत्रकारिता का पतन है, बल्कि राष्ट्र-निर्माण की उस धारा की उपेक्षा है जो लाखों युवाओं को निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा के लिए प्रेरित करती है।
अब समय है कि भारतीय मीडिया अपनी भूमिका का आत्मचिंतन करे और तय करे कि वह एजेंडा चलाना चाहता है या राष्ट्र का सच बताना।
संघ को सराहना मिले या आलोचना, परंतु उसकी भूमिका को समझने, जानने और निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी मीडिया की है — और यही पत्रकारिता का धर्म भी है।