क्या चीन बनाएगा नकली दलाई लामा? तिब्बत की आत्मा को निगलने की तैयारी!

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पूनम शर्मा
जैसे-जैसे तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा अपनी 90वीं वर्षगाँठ  के करीब पहुँच  रहे हैं, उनका उत्तराधिकारी कौन होगा—यह सवाल केवल तिब्बत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। एक पवित्र धार्मिक परंपरा, जो करुणा और आध्यात्मिकता पर आधारित है, अब चीनी सरकार की राजनीतिक साजिशों की भेंट चढ़ने की कगार पर है।
धर्म नहीं, राजनीति का खेल बना रहा है चीन
14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो, जिनका जन्म 6 जुलाई 1935 को ल्हामो धोन्डुप के रूप में हुआ था, दो वर्ष की आयु में 13वें दलाई लामा के पुनर्जन्म के रूप में पहचाने गए थे। 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर सैन्य बल प्रयोग के बाद वे भारत के धर्मशाला में निर्वासन में रहने लगे।
तिब्बती विश्वासों के अनुसार, दलाई लामा अवलोकितेश्वर (करुणा के बोधिसत्व) के अवतार होते हैं—ऐसे संत जिनका पुनर्जन्म सत्ता नहीं, सेवा और मानवीय कल्याण की शपथ पर आधारित होता है।
परंतु अब यह पवित्र परंपरा बीजिंग की साजिशों के घेरे में है। चीन तिब्बती बौद्ध धर्म को अपनी पकड़ में लेने के लिए पूरी ताकत झोंक रहा है, ताकि असली आध्यात्मिक नेतृत्व को खत्म कर एक “सरकारी दलाई लामा” की स्थापना की जा सके।
1995 से ही दिखा चीन का असली इरादा
1995 में जब दलाई लामा ने गेधुन चोएकी न्यिमा नामक 6 वर्षीय बालक को पंचेन लामा (दलाई लामा के बाद दूसरे सर्वोच्च) के रूप में मान्यता दी, तो चीन ने उसे अगवा कर लिया। उसकी जगह उन्होंने एक अपने मनपसंद बालक ग्याइनचेन नोर्बू को थोप दिया, जिसे अधिकांश तिब्बती स्वीकार नहीं करते। गेधुन आज तक लापता हैं और उन्हें दुनिया का सबसे छोटा “राजनीतिक बंदी” कहा जाता है।
चीन का “राजनीतिक पुनर्जन्म” कानून
2007 में चीन ने एक कानून पास किया, जिसके अनुसार तिब्बती लामाओं का पुनर्जन्म सरकारी अनुमति के बिना मान्य नहीं होगा। यानी अब पुनर्जन्म भी बीजिंग की अनुमति से होगा! यह तानाशाही का सबसे विचित्र और खतरनाक रूप है, जो धर्म को सत्ता के अधीन करना चाहता है।
दलाई लामा की चेतावनी: “चीनी दलाई लामा को अस्वीकार करो”
दलाई लामा ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि उनका अगला पुनर्जन्म केवल धार्मिक प्रक्रिया से तय होगा, न कि चीनी आदेश से। 2011 में उन्होंने निर्देश जारी किए थे कि अगला दलाई लामा कैसे चुना जाएगा—इसमें गदेन फोद्रांग ट्रस्ट और वरिष्ठ तिब्बती लामाओं की भूमिका होगी, न कि किसी सरकार की।
उन्होंने साफ कहा है कि चीन द्वारा घोषित कोई भी “दलाई लामा” अवैध और अस्वीकार्य होगा। तिब्बती, मंगोलियाई और हिमालय क्षेत्र के बौद्ध अनुयायियों को भी पारंपरिक तरीके से ही उत्तराधिकारी स्वीकार करना होगा।
क्यों पूरी दुनिया को चिंता करनी चाहिए?
यह मामला सिर्फ तिब्बत का नहीं है। यह धार्मिक स्वतंत्रता, संस्कृति की रक्षा, और राजनीतिक हस्तक्षेप के विरुद्ध एक वैश्विक चुनौती है। जैसे चीन उइगर मुस्लिमों को री-एजुकेशन कैंप में डालता है, ईसाई चर्चों को तोड़ता है, और फालुन गोंग का दमन करता है—वैसे ही अब तिब्बती बौद्ध धर्म को भी मिटाना चाहता है।
भारत, भूटान, नेपाल, मंगोलिया, लद्दाख, और सिक्किम जैसे क्षेत्रों में, जहां तिब्बती बौद्ध धर्म की गहरी जड़ें हैं, इस उत्तराधिकारी विवाद का सीधा असर होगा—धर्म, राजनीति और सामरिक संतुलन सब पर।
असली बनाम नकली: दो दलाई लामा की दुनिया?
यदि चीन तेनजिन ग्यात्सो के निधन के बाद अपना “दलाई लामा” घोषित करता है, तो दुनिया में दो अलग-अलग दलाई लामा होंगे—एक असली, जो निर्वासित तिब्बती परंपरा से जुड़ा होगा, और एक नकली, जो बीजिंग के प्रचारतंत्र का मुखौटा होगा। यह टकराव अंतरराष्ट्रीय बौद्ध समुदाय, धार्मिक संस्थाओं, और राजनयिक मंचों तक फैल जाएगा।
निर्वासन में तिब्बतियों के लिए अस्तित्व का सवाल
विश्वभर में फैले छह मिलियन तिब्बतियों के लिए दलाई लामा की उत्तराधिकार प्रक्रिया केवल धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक अस्तित्व का विषय है। यदि ये नेतृत्व सच्चे आध्यात्मिक मार्ग से नहीं चुना गया, तो समाज में निराशा, बिखराव और हाशियाकरण बढ़ सकता है।
अब यह जिम्मेदारी गदेन फोद्रांग ट्रस्ट और वरिष्ठ लामाओं पर है कि वे दबावों से ऊपर उठकर एक पारदर्शी और पवित्र प्रक्रिया से उत्तराधिकारी चुनें। इसमें आम तिब्बती जनता की राय भी महत्वपूर्ण होनी चाहिए।
यह दुनिया की आत्मा की परीक्षा है
यदि दुनिया चुप रही और चीन द्वारा थोपे गए दलाई लामा को स्वीकार किया गया, तो यह धार्मिक दमन को वैधता देने जैसा होगा। तिब्बत का मामला केवल धर्म का नहीं, बल्कि मानव गरिमा और पहचान के संरक्षण का मामला है।
जैसा कि दलाई लामा ने कहा था: “मुझे मानवता पर विश्वास है।” अब उस विश्वास को जवाब देने की आवश्यकता है।
दुनिया को एक स्वर में कहना होगा—”दलाई लामा चीन का नहीं, तिब्बत का होता है!

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