केरल के स्कूलों में ज़ुम्बा शुरू, मुस्लिम संगठनों ने जताई आपत्ति

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समग्र समाचार सेवा
केरल ,28 जून- केरल सरकार ने नशामुक्ति अभियान के तहत राज्य के स्कूलों में ज़ुम्बा डांस को शामिल किया है, लेकिन कुछ मुस्लिम संगठनों ने इस फैसले पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि यह “लड़के-लड़कियों के साथ नाचने” और “अश्लीलता” को बढ़ावा देने वाला कदम है, जो उनकी धार्मिक और नैतिक मान्यताओं के खिलाफ है।

राज्य के कई स्कूलों में इस शैक्षणिक सत्र से ज़ुम्बा की ट्रेनिंग शुरू हो चुकी है। शिक्षा विभाग का मानना है कि यह पहल बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के साथ-साथ उन्हें नशे से दूर रखने में मदद करेगी।

मुस्लिम संगठनों का विरोध

विस्डम इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन के महासचिव टीके अशरफ ने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि वे अपने बेटे को ज़ुम्बा सत्र में शामिल नहीं होने देंगे। वहीं समस्थ के नेता नासर फैज़ी कूड़थाई ने इस निर्णय को “निजी स्वतंत्रता का उल्लंघन” और “फिजिकल फिटनेस के नाम पर अश्लीलता थोपना” बताया। उनका कहना है कि स्कूलों में ज़ुम्बा जैसे नृत्य सत्र धार्मिक आस्थाओं के विरुद्ध हैं और यह बच्चों पर गलत प्रभाव डाल सकते हैं।

सरकार की सफाई और प्रतिक्रिया

इस विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए केरल के शिक्षा मंत्री वी. शिवनकुट्टी ने ज़ुम्बा का बचाव किया। उन्होंने एक वीडियो साझा किया जिसमें मुस्लिम छात्र-छात्राएं स्कूल यूनिफॉर्म में ज़ुम्बा करते दिख रहे हैं। मंत्री ने कहा, “बच्चों को खेलने, हँसने, मस्ती करने और स्वस्थ रूप से बढ़ने दीजिए।”

शिवनकुट्टी ने आरोप लगाने वालों को जवाब देते हुए कहा कि “बच्चों को छोटे कपड़े पहनने को मजबूर नहीं किया गया है, वे स्कूल की यूनिफॉर्म में ही अभ्यास कर रहे हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी आपत्तियाँ समाज में नफरत का ज़हर घोलने का काम करेंगी और शिक्षा प्रणाली में साम्प्रदायिकता लाएंगी।

उन्होंने यह स्पष्ट किया कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) के तहत बच्चों को सरकार द्वारा तय की गई शैक्षणिक गतिविधियों में भाग लेना आवश्यक है और माता-पिता को इसमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है।

सरकार का उद्देश्य

शिक्षा विभाग के अनुसार, ज़ुम्बा सत्र पूरी तरह स्वैच्छिक हैं और इसका मकसद छात्रों को अकादमिक दबाव से राहत देना और नशे से बचाना है। यह पहल बच्चों के समग्र विकास के लिए की गई है।

हालांकि, कुछ वर्गों की आपत्तियों के कारण यह कदम एक सामाजिक और सांस्कृतिक बहस में बदल गया है, जहाँ  एक ओर सरकार इसे स्वास्थ्य और जागरूकता का माध्यम मानती है, वहीं दूसरी ओर कुछ संगठनों को इसमें धार्मिक और नैतिक संकट दिख रहा है।

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