राहुल के ‘आभामंडल’ से बाहर निकले बिना, कांग्रेस का संकट समाप्त नहीं होगा

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बलबीर पुंज
‘नाच न जाने, आंगन टेढ़ा’— यह कहावत शीर्ष कांग्रेसी नेता और लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी के हालिया बयानों पर सटीक बैठती है। उन्होंने अपने एक वक्तव्य में कहा, “बिहार में महाराष्ट्र जैसी मैच फिक्सिंग होगी।” इस संदर्भ में उनके कई समाचारपत्रों में लेख भी प्रकाशित हुए। उनके अनुसार, बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार पूर्वनिश्चित है। यह बात सही हो सकती है, परंतु इस संभावित पराजय के जो कारण राहुल गिनाते हैं, वे उनके राजनीतिक अपरिपक्वता और वंशवादी दर्प को ही उजागर करते हैं।

बिहार में कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति तीन दशकों से दयनीय है। 1990 के विधानसभा चुनाव में जहां पार्टी का मतप्रतिशत 24.78% था, वहीं 1995 में यह घटकर 16.27% रह गया। इसके बाद यह और घटते हुए वर्ष 2000 में 11% और 2005 में राजद के सहयोग से केवल 6% रह गया। 2010 में अकेले चुनाव लड़कर कांग्रेस 8.37% मत ही जुटा सकी। 1999-2014 के बीच लोकसभा चुनावों में बिहार में कांग्रेस का औसत मतप्रतिशत मात्र 8% था। इस अवधि में अधिकांश समय कांग्रेस की प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन वाली सरकार थी। 2015 और 2020 में भी उसका मतप्रतिशत क्रमशः 6.7% और 9.48% ही था।

कांग्रेस का क्षरण केवल बिहार तक सीमित नहीं है। स्वतंत्रता के बाद देश पर कांग्रेस का 50 वर्षों तक प्रत्यक्ष-परोक्ष शासन रहा। इस दौरान कांग्रेस तमिलनाडु (1967), पं. बंगाल (1977), उत्तर प्रदेश (1989), गुजरात (1990), महाराष्ट्र (1995), ओडिशा (2000), गोवा (2012) और दिल्ली (2013) में एक बार सत्ता से बाहर हुई, तो अपने दम पर अब तक लौट नहीं सकी। दिल्ली में 2015, 2020 और 2025 के चुनावों में वह खाता तक नहीं खोल सकी। महाराष्ट्र में उसका मतप्रतिशत 2009 में 21% से घटकर 2024 में मात्र 12% रह गया है। क्या यह सब भी राहुल के लिए ‘मैच फिक्सिंग’ है?

वर्ष 2014 की ऐतिहासिक पराजय कांग्रेस के लिए बड़ा राजनीतिक संदेश था। पिछले चुनाव की तुलना में पार्टी की सीटें 206 से घटकर 44 और मतप्रतिशत 28.5% से 19.3% पर आ गया। इस दौर में दस वर्षों तक केंद्र में कांग्रेस नीत संप्रग गठबंधन की सरकार थी। तब चुनाव आयोग पर भाजपा के किसी तथाकथित प्रभाव होने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। क्या राहुल तब भी अपनी इस करारी के लिए किसी ‘मैच-फिक्सिंग’ का आरोप लगाएंगे?

तब कांग्रेस की पराजय— अपार भ्रष्टाचार, नीतिगत पंगुता, बार-बार होते जिहादी हमले, मनगढ़ंत ‘भगवा आतंकवाद’ का नैरेटिव गढ़ने और बहुसंख्यक हिंदुओं के प्रति एकतरफा सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाने का परिणाम था। इस असंतोष से 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ऐतिहासिक विजय मिली। तीन दशक बाद किसी एक पार्टी को पहली बार स्पष्ट पूर्ण बहुमत मिला। भाजपा के प्रति जनसमर्थन 2019 में और प्रबल हुआ और उसने पहले से अधिक सीटों के साथ फिर बहुमत प्राप्त किया। सत्ता-विरोधी लहर, विपक्षी एकजुटता, भारत-विरोधी शक्तियों के प्रपंचों और नकारात्मक प्रचार के बावजूद 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार जनमत पाने में सफल रहे।

कांग्रेस को यह समझने की आवश्यकता है कि भाजपा को मिल रहा जनसमर्थन न केवल प्रधानमंत्री मोदी की निर्णायक नेतृत्वशैली, बल्कि उनकी सरकार के पारदर्शी प्रशासन, जमीनी कार्य, नीतिगत प्रतिबद्धता और वैश्विक मंचों पर भारत की बढ़ती प्रतिष्ठा के कारण है। यदि भाजपा से किसी को नाराजगी भी है, तो वह कांग्रेस के बजाय अन्य विकल्प खोजते है। कांग्रेस का पारंपरिक मतदाता आज ‘आप’ जैसे दलों की ओर मुख कर चुका है— दिल्ली और पंजाब इसका प्रमाण हैं। यही नहीं, कांग्रेस के अधिकांश सहयोगी दल— सपा, राजद, तृणमूल, द्रमुक, राकांपा आदि ने कांग्रेस की ही सियासी जमीन पर सेंधमारी करके अपनी जड़ें जमाई हैं।

कांग्रेस 1971 से लगातार ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देती रही, किंतु उस अवधि में देश में निर्धनों की संख्या निरंतर बढ़ती गई। इसका मूल कारण था— व्यवस्था में गहराई तक समाया भ्रष्टाचार, व्यापक कालाबाजारी और सरकार के शीर्ष स्तर पर जनकल्याणकारी योजनाओं हेतु आवंटित संसाधनों की बेशर्मी से की गई लूट-खसोट। इसके विपरीत, मोदी सरकार की भ्रष्टाचार मुक्त जनकल्याणकारी योजनाएं— जनधन, उज्ज्वला, जल, आवास, आयुष्मान, निःशुल्क खाद्यान्न आदि का लाभ बिना जातिगत-मजहबी मतभेद के सीधा लाभार्थियों तक पहुंचा। विश्व बैंक की नवीनतम रिपोर्ट कहती है कि 2011-12 में जहां अत्यंत गरीबों की संख्या 27.1% थी, वह 2022-23 तक घटकर 5.3% रह गई। लगभग 27 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी से बाहर आए। यह इस बात का प्रमाण है कि यदि नीति पारदर्शी, उद्देश्य-केंद्रित और भ्रष्टाचारमुक्त हो, तो समाज के अंतिम व्यक्ति तक प्रभावी परिवर्तन संभव है।

आज भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। आतंरिक सुरक्षा के मोर्चे पर बीते 11 वर्षों में दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ। जम्मू-कश्मीर में धारा 370-35ए के उन्मूलन ने न केवल राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया, साथ ही आतंकवाद और सीमापार घुसपैठ में गिरावट भी लाई। नक्सलवाद लगभग समाप्त हो चला है। भारतीय सेना अब किसी भी दुस्साहस का मुंहतोड़ उत्तर देने को स्वतंत्र है। सर्जिकल स्ट्राइक और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। मोदी कार्यकाल में भारतीय सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रवाद भी पुनर्स्थापित हुआ है। अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और उज्जैन में महाकाल लोक का पुनर्निर्माण और योग की वैश्विक मान्यता आदि— इसका जीवंत प्रमाण है।

राहुल गांधी भारतीय राजनीति के लिए जैसे अनुपयुक्त प्रतीत होते हैं। उन्हें जो पद वर्षों से मिला है, वह न अनुभव का परिणाम है, न बुद्धिमत्ता का— बल्कि वंशवादी दंभ और स्वयं को ‘विशेष’ मानने के कारण है। 2013 में अपनी ही सरकार के अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से खारिज करके राहुल ने अपरिपक्वता और अलोकतांत्रिक होने का प्रमाण दिया था। इसके चलते जब 2023 में मानहानि के मामले में दोषसिद्धि हुए, तो वे तुरंत अयोग्य ठहरा दिए गए। अपनी अनेकों गलतियों से राहुल नहीं सीखते। मोदी विरोध में वे कभी सैन्य कार्रवाई पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, तो कभी ऐसे वक्तव्य देते हैं, जिनका पाकिस्तान अपने भारत-विरोधी नैरेटिव में उपयोग करता है।

सच तो यह है कि राहुल एक ऐसी छाया बन चुके हैं, जो कांग्रेस के अस्तित्व पर ही भारी पड़ती जा रही है। जब तक पार्टी उनके आभामंडल से बाहर नहीं निकलेगी, तब तक कांग्रेस का संकट समाप्त नहीं होगा।

स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक है।
संपर्क:- punjbalbir@gmail.com

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