ऑपरेशन सिंधु के तहत 603 भारतीयों की सुरक्षित वापसी
मध्य पूर्व में नौकरी की अनिश्चितता पर फिर उठे सवाल
पूनम शर्मा
इसराइल-ईरान संघर्ष के बीच भारत ने ‘ऑपरेशन सिंधु’ के तहत युद्धग्रस्त क्षेत्र से अपने नागरिकों को निकालने का जो व्यापक और जटिल अभियान चलाया है, वह न केवल मानवीय दृष्टि से सराहनीय है, बल्कि यह मध्य पूर्व में काम कर रहे लाखों भारतीयों के लिए एक चेतावनी भी है। सोमवार को 443 भारतीयों का दूसरा जत्था इसराइल की सीमा से जॉर्डन और मिस्र के रास्ते सुरक्षित बाहर निकाला गया। इससे दो दिनों में निकाले गए भारतीयों की कुल संख्या 603 हो गई है।
रविवार को पहला जत्था 160 लोगों का था, जो इसराइल से निकलकर जॉर्डन पहुँचा और आज दोपहर 2:15 बजे (स्थानीय समयानुसार) भारत के लिए रवाना हुआ। इसके बाद सोमवार को 175 लोग जॉर्डन और 268 लोग मिस्र की सीमा पार कर निकाले गए।
युद्ध के साए में जीवन
इसराइल में रह रहे भारतीयों का कहना है कि बीते दिनों लगातार हवाई हमलों के सायरन और बंकरों में छिपकर रहना एक भयावह अनुभव था। वहां रह रही केरल की एक महिला नर्स ने बताया, “रोज़ सुबह जागते ही हमें सबसे पहले बंकर का रास्ता देखना होता था। अस्पताल में काम के दौरान भी हम तैयार रहते थे कि कब अलार्म बजे और हमें नीचे भागना पड़े।”
एक आईटी इंजीनियर, जो अब जॉर्डन होते हुए भारत लौट रहे हैं, ने कहा, “कभी सोचा नहीं था कि एक दिन हमें इस तरह रातों-रात सब कुछ छोड़कर लौटना पड़ेगा। तीन साल की नौकरी, घर, कार सब यहीं रह गया। लेकिन जान बची तो बहुत है।”
मध्य पूर्व: आर्थिक अवसर या असुरक्षा का क्षेत्र?
मध्य पूर्व खासकर इसराइल, सऊदी अरब, कतर, कुवैत और यूएई में लाखों भारतीय काम कर रहे हैं — नर्सिंग, निर्माण, होटल प्रबंधन, टेक्नोलॉजी, ड्राइविंग और घरेलू कामों से लेकर इंजीनियरिंग तक। ये देश भारतीयों को रोज़गार तो देते हैं लेकिन हर कुछ वर्षों में युद्ध, विद्रोह या राजनीतिक अस्थिरता के कारण वहां की ज़िंदगी खतरे में पड़ जाती है।
2023 में भी सूडान संकट के दौरान ऑपरेशन “कावेरी” के तहत 3,000 से ज्यादा भारतीयों को निकाला गया था। 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान के अधिग्रहण के बाद भारतीय दूतावास के कर्मचारियों सहित सैकड़ों लोगों को वहां से हटाया गया था। यमन, लीबिया, सीरिया, इराक — हर संघर्ष में भारतीय सरकार को विशेष ऑपरेशन चलाने पड़े हैं।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि मध्य पूर्व के कई देशों में स्थायी नागरिक जीवन और नौकरी की सुरक्षा केवल एक भ्रम है। हालात कभी भी बदल सकते हैं और प्रवासी भारतीय सबसे पहले संकट की चपेट में आते हैं।
भारत सरकार की सतर्कता
भारत सरकार ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि संकट के समय वह अपने नागरिकों को अकेला नहीं छोड़ती। प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय ने इस बार तीन देशों — इसराइल, जॉर्डन और मिस्र — के साथ मिलकर जो समन्वय किया, वह कूटनीतिक कुशलता का प्रमाण है।
दिल्ली, मुंबई और कोच्चि एयरपोर्ट पर स्पेशल हेल्प डेस्क बनाए गए हैं ताकि लौट रहे लोगों को रोजगार, परामर्श और पुनर्वास में मदद मिल सके।
लेकिन क्या यही समाधान है?
विशेषज्ञों का मानना है कि यह समय है जब भारत को एक दीर्घकालिक नीति बनानी चाहिए — जो न सिर्फ प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करे, बल्कि युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार निर्भरता को भी कम करे।
डॉ. संदीप जोशी, जो कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) में सलाहकार रह चुके हैं, का कहना है, “हमें अपने तकनीकी व कुशल श्रमिकों के लिए नए और सुरक्षित गंतव्य खोजने होंगे। साथ ही, भारत में ही रोजगार सृजन की दिशा में नई रणनीति बनानी होगी, जिससे युवा विदेश जाकर जोखिम न लें।”
ऑपरेशन सिंधु ने यह साबित कर दिया कि भारत अपने नागरिकों के प्रति जवाबदेह है। लेकिन यह भी एक बड़ा सबक है — मध्य पूर्व में केवल तनख्वाह की ऊँचाई को देखकर जाना आज के दौर में समझदारी नहीं है। जब बंकर ही आपका घर बन जाए, तो तनख्वाह से पहले ज़िंदगी की कीमत याद आती है।