लोकतंत्र का चेहरा और प्रतीकों की राजनीति: भारत के चुनावी परिदृश्य की दो परछाइयाँ

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पूनम शर्मा
हाल ही में भारत में दो घटनाओं ने लोकतंत्र और प्रतीकों की भूमिका पर गहरी बहस को जन्म दिया है। एक तरफ जहां पांच राज्यों में हुए उपचुनावों ने भारतीय चुनाव प्रणाली की पारदर्शिता, सीमाओं और संभावनाओं को उजागर किया, वहीं दूसरी तरफ केरल में राज्यपाल द्वारा “भारत माता” की एक विशेष छवि को राजभवन के कार्यक्रमों में प्रदर्शित करने को लेकर विवाद ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि संवैधानिक पदों का उपयोग प्रतीकात्मक राजनीति के लिए किस हद तक उचित है?

केरल में ‘भारत माता’ विवाद: संवैधानिक गरिमा बनाम राजनीतिक प्रतीकवाद

केरल के राज्यपाल राजेन्द्र अर्लेकर द्वारा राजभवन में आयोजित कार्यक्रमों में ‘भारत माता’ की एक विशेष छवि—जिसमें वह भगवा ध्वज थामे एक शेर के साथ खड़ी हैं और उनके पीछे ‘अखंड भारत’ का मानचित्र है—प्रदर्शित की गई। इस प्रतीकात्मकता ने राज्य की राजनीति में तूफान ला दिया। वामपंथी सरकार के मंत्रियों ने इसे “हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे” के प्रचार का माध्यम बताते हुए राजभवन के कार्यक्रमों का बहिष्कार किया।

राज्यपाल ने इसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित बताया, लेकिन भारत माता की यह छवि कोई निष्कलंक सांस्कृतिक प्रतीक नहीं है। इसके ऐतिहासिक संदर्भों में गहरे राजनीतिक और सांप्रदायिक अर्थ छिपे हैं। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ से जन्मी यह छवि, ‘वंदे मातरम्’ गीत के साथ जुड़कर सांस्कृतिक चेतना का केंद्र बनी, परंतु इसमें ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना को बढ़ावा देने के आरोप भी समय-समय पर लगे।

प्रतीकों की बहुलता और भारत माता छवि

‘भारत माता’ की छवि भारतीय कला और संस्कृति में एक बहुरूपा प्रतीक रही है। अबनींद्रनाथ ठाकुर ने भारत माता को चार हाथों वाली देवी के रूप में चित्रित किया, जिनके हाथों में पुस्तक, धान की बाली, सफेद वस्त्र और रुद्राक्ष की माला थी। यह छवि एक शांत, विदुषी, समृद्ध भारत की कल्पना थी—जिसमें धार्मिक तत्व कम और सांस्कृतिक गौरव अधिक था।

इसके विपरीत अमृता शेरगिल की कूंची से निकली ‘मदर इंडिया’ एक पीड़ित माँ की छवि , जो राष्ट्र की पीड़ा में सम्मिलित थी।

चुनाव आयोग के कड़े कदम: पारदर्शिता की ओर एक कदम

वहीं, देश के पाँच राज्यों में हुए उपचुनावों में एक और कथा रची गई। गुजरात, केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल की पांच विधानसभा सीटों के उपचुनावों में मतदाताओं ने कई पुराने समीकरण बदल दिए। केरल की निलम्बूर सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार आर्यादन शौकत की जीत और पीवी अनवर की हार ने यह स्पष्ट किया कि वायनाड में कांग्रेस की जड़ें अभी भी गहरी हैं।

पश्चिम बंगाल के कलीगंज में तृणमूल कांग्रेस की उम्मीदवार अलीफा अहमद ने 50,000 से अधिक वोटों से विजय हासिल की, लेकिन इसी दिन हुए एक बम धमाके में एक मासूम की मौत ने लोकतंत्र पर एक धब्बा छोड़ दिया। सवाल वही—क्या हम हिंसा-मुक्त चुनावों की कल्पना कर सकते हैं?

आम आदमी पार्टी का उभार और भाजपा की पकड़

गुजरात की विसावदर सीट पर आम आदमी पार्टी ने अपना वजूद बनाए रखने में सफलता पाई, जहां उसका पूर्व विधायक भाजपा में चला गया था। वहीं पंजाब के लुधियाना वेस्ट से AAP नेता संजीव अरोड़ा ने जीत दर्ज की। भाजपा ने गुजरात की कड़ी सीट पर अपनी पकड़ बनाए रखी, जो उसके पारंपरिक गढ़ों में से एक है।

इन चुनावों में सबसे उल्लेखनीय पहलें चुनाव आयोग द्वारा की गईं। सभी मतदान केंद्रों पर वेबकास्टिंग, मोबाइल डिपॉजिट सुविधा और त्वरित मतदान प्रतिशत अपडेट जैसे उपायों ने पारदर्शिता को नए स्तर पर पहुँचाया। परंतु अंतिम समय में कुछ बूथों पर “असामान्य रूप से भारी मतदान” और वीडियो रिकॉर्ड्स के सार्वजनिक न होने को लेकर संदेह बना रहा।

निष्पक्षता ही नहीं, निष्पक्षता दिखनी भी चाहिए

चुनाव केवल वोट डालने और गिनती तक सीमित नहीं होते, बल्कि उनकी वैधता उस प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और सार्वजनिक विश्वास पर आधारित होती है। ECI की पहलें सराहनीय हैं, परंतु उन्हें और सख्ती, पारदर्शिता और डिजिटल साक्ष्यों की सार्वजनिक उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए।

उसी तरह, संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को यह समझना होगा कि भारत माता की छवि जितनी भावनात्मक है, उतनी ही विवादास्पद भी हो सकती है यदि उसका उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जाए। राष्ट्र का प्रतिनिधित्व किसी एक धर्म, रंग या झंडे से नहीं, बल्कि उसकी विविधता, समावेशिता और संविधान से होता है।

भारत का लोकतंत्र एक ओर नए प्रयोगों और पारदर्शिता की राह पर है, वहीं दूसरी ओर प्रतीकों की राजनीति से बार-बार उलझता नजर आता है। यह जरूरी है कि भारत में सभी संवैधानिक संस्थान अपनी भूमिका को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखते हुए निष्पक्ष और समावेशी दृष्टिकोण अपनाएं। भारत माता एक भावना है—उसे किसी विचारधारा के जाल में उलझाना नहीं, बल्कि सभी नागरिकों की साझी पहचान बनाना ही लोकतांत्रिक भारत का सच्चा उद्देश्य होना चाहिए।

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