आपातकाल की अनसुनी कहानी: संजय गांधी की ‘स्पेशल हॉटलाइन’ और इंदिरा का शासन

जब 1975 के आपातकाल में एक युवा के हाथ में थी देश की कमान

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अशोक कुमार
भारत के इतिहास में 25 जून 1975 का दिन एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। यह 21 महीनों का वह दौर था जब नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित कर दी गईं, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम में इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण और विवादास्पद रही, जिन्होंने पर्दे के पीछे से सरकार के कई बड़े फैसलों को प्रभावित किया।

इमरजेंसी का ऐलान: एक रात में बदल गया देश

12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के 1971 के चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया, जिससे उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर खतरा मंडरा गया। इस राजनीतिक संकट के बीच, 25 जून को आधी रात में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की सिफारिश पर आपातकाल की घोषणा कर दी। सुबह होते-होते, देशभर के विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, और अखबारों की बिजली काट दी गई ताकि कोई खबर प्रकाशित न हो सके। आकाशवाणी पर इंदिरा गांधी ने देश को संबोधित करते हुए कहा कि उनके खिलाफ “गहरी साजिश” रची जा रही है।

संजय गांधी का ‘अदृश्य’ नियंत्रण: स्पेशल हॉटलाइन की कहानी

आपातकाल के दौरान, संजय गांधी, जो उस समय किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं थे, का प्रभाव असाधारण रूप से बढ़ गया था। यह कहा जाता है कि प्रधानमंत्री निवास में उनके लिए एक ‘स्पेशल हॉटलाइन’ स्थापित की गई थी, जिसके माध्यम से वे सीधे देश भर के अधिकारियों और मुख्यमंत्रियों से बात करते थे। इस हॉटलाइन का उपयोग सरकारी नीतियों को लागू करने और विरोध को कुचलने के लिए किया जाता था। मंत्रियों और नौकरशाहों को भी संजय गांधी के आदेशों का पालन करना पड़ता था। उन्होंने कई प्रशासनिक बदलावों को प्रभावित किया और सरकार की नीतियों में उनका सीधा दखल था।

जबरन नसबंदी अभियान: एक काला दाग

संजय गांधी की सबसे विवादास्पद भूमिका जबरन नसबंदी अभियान में थी। जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर चलाए गए इस अभियान में लाखों लोगों की जबरन नसबंदी की गई। इस अभियान को इतनी सख्ती से लागू किया गया कि लोगों में डर का माहौल पैदा हो गया। गांव-देहात में लोग नसबंदी से बचने के लिए खेतों और कुओं में छिपने लगे थे। सरकारी कर्मचारियों को वेतन रोकने और वाहन चालकों के लाइसेंस रद्द करने की धमकी दी जाती थी, यदि वे नसबंदी का लक्ष्य पूरा नहीं करते थे। इस अभियान ने इंदिरा गांधी सरकार की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया और 1977 के चुनावों में उनकी हार का एक बड़ा कारण बना।

प्रेस सेंसरशिप और नागरिक अधिकारों का हनन

आपातकाल के दौरान प्रेस पर पूर्ण सेंसरशिप लगा दी गई थी। हर अखबार में एक सेंसर अधिकारी बैठा दिया जाता था, जिसकी अनुमति के बिना कोई खबर प्रकाशित नहीं हो सकती थी। सरकार विरोधी समाचार छापने पर पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया जाता था। मीसा (Maintenance of Internal Security Act) जैसे कानूनों का दुरुपयोग करके हजारों लोगों को बिना वारंट के गिरफ्तार किया गया और उन्हें अदालत में पेश होने का अधिकार भी नहीं था। नागरिक स्वतंत्रताएं छीन ली गई थीं, और मानवाधिकारों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हुआ।

आपातकाल का अंत और सबक

21 महीने के बाद, 1977 में इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने का फैसला किया, जिसमें उन्हें भारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी की सरकार बनी और देश में लोकतंत्र फिर से बहाल हुआ। आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण सबक है, जो सत्ता के केंद्रीकरण, नागरिक स्वतंत्रता के महत्व और एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता को रेखांकित करता है। संजय गांधी की भूमिका आज भी उस दौर की एक विवादास्पद और गहराई से चर्चा की जाने वाली याद बनी हुई है।

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