पूनम शर्मा दक्षिण कोरिया के नए राष्ट्रपति ली जे म्योंग के शपथ ग्रहण के साथ ही एशिया-प्रशांत क्षेत्र की कूटनीति में एक संभावित बड़ा मोड़ आता दिख रहा है। डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ कोरिया (DPK) के इस नेता ने चुनाव के दौरान और अपने पहले भाषण में जिस ‘प्रैगमैटिक डिप्लोमेसी’ यानी व्यवहारिक कूटनीति की बात की, वह अमेरिका, जापान और ताइवान जैसे देशों के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है।
ली जे म्योंग ने स्पष्ट रूप से कहा कि उनका उद्देश्य दक्षिण कोरिया के राष्ट्रीय हितों के आधार पर चीन और रूस से संबंधों को संतुलित रखना है। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि बदलते वैश्विक परिदृश्य, जिसमें संरक्षणवाद और आपूर्ति श्रृंखला संकट प्रमुख हैं, उनके देश के अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।
उन्होंने सत्ता संभाल ली है, वॉशिंगटन और टोक्यो में यह चिंता और बढ़ गई है कि कहीं दक्षिण कोरिया की नई सरकार अमेरिका से दूरी बनाकर चीन और रूस के करीब न आ जाए।
उन्होंने ताइवान विवाद में स्पष्ट रूप से कहा कि दक्षिण कोरिया को इस टकराव से दूर रहना चाहिए। उनकी यह टिप्पणी उस समय आई जब अमेरिका और जापान, दोनों ही चीन की आक्रामक नीति को रोकने के लिए दक्षिण कोरिया के साथ घनिष्ठ त्रिपक्षीय सहयोग पर जोर दे रहे हैं।
पूर्व राष्ट्रपति यून सुक योल के कार्यकाल में दक्षिण कोरिया और जापान के संबंधों में सुधार देखा गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जबरन श्रम के मुद्दे पर दोनों देशों के बीच चले आ रहे तनाव को खत्म करने की दिशा में कई पहलें हुई थीं। यून ने दक्षिण कोरिया की ओर से पीड़ितों को मुआवजा देने का प्रस्ताव भी दिया था, जिसे जापान ने सराहा और व्यापार प्रतिबंधों में ढील दी।
अब सवाल यह है कि क्या ली जे म्योंग इन रिश्तों को फिर से पीछे की ओर ले जाएंगे? ली और उनकी पार्टी DPK पहले भी जापान के उपनिवेशवाद के खिलाफ मुखर रहे हैं। ली ने सार्वजनिक मंचों से जापान पर उसकी ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ बनाए रखने का आरोप लगाया है, जो द्विपक्षीय सहयोग की राह में बाधा बनती है।
पूर्व राष्ट्रपति यून की नीति ‘वैल्यू-बेस्ड डिप्लोमेसी’ यानी मूल्यों पर आधारित कूटनीति थी, जिसमें लोकतंत्र, मानवाधिकार और साझा हितों को प्राथमिकता दी गई थी। वहीं, ली जे म्योंग राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने वाले व्यावहारिक दृष्टिकोण के पक्षधर हैं। वे मानते हैं कि किसी भी गठबंधन में पूरी तरह बंधना कोरिया के लिए नुकसानदेह हो सकता है।
एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “चीन और रूस से हम भले ही दूरी बनाना चाहें, लेकिन भौगोलिक और आर्थिक रूप से हम उनसे जुड़े हुए हैं — यह हमारी नियति है।” उन्होंने यह भी कहा कि दक्षिण कोरिया को किसी भी चीन-ताइवान संकट में गहराई से नहीं उलझना चाहिए और हर स्थिति में लचीला दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।ली जे म्योंग ने अमेरिका को दक्षिण कोरिया की विदेश नीति की नींव बताया है, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि “हमें अपने सारे अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखने चाहिए।” यह बयान बताता है कि नई सरकार पारंपरिक अमेरिका-केंद्रित नीति से हटकर बहुध्रुवीय दृष्टिकोण की ओर बढ़ सकती है
ली जे म्योंग की सत्ता में वापसी एक ऐसे समय में हुई है जब एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भू-राजनीतिक तनाव चरम पर है। अमेरिका, जापान और ताइवान की साझा सुरक्षा रणनीतियाँ पहले से ही चीन और रूस के बढ़ते प्रभाव को रोकने में लगी हैं। ऐसे में दक्षिण कोरिया यदि अमेरिका से दूरी बनाकर एक ‘प्रैगमैटिक’ संतुलन साधने की कोशिश करता है, तो यह पूरे क्षेत्र के रणनीतिक समीकरणों को बदल सकता है।
इस परिवर्तन की दिशा क्या होगी, यह आने वाले महीनों में और स्पष्ट होगा, लेकिन फिलहाल इतना तय है कि चीन और रूस के लिए दक्षिण कोरिया में यह बदलाव एक राहत की खबर है — और ताइवान व जापान के लिए चिंता का विषय।