भारत-पाकिस्तान का द्वंद्व: वह युद्ध जिससे दुनिया डरती है, पर जो कभी लंबा नहीं चलता

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*पूनम शर्मा

जब रूस-यूक्रेन युद्ध तीसरे दशक में प्रवेश कर चुका है और इज़रायल भी कई मोर्चों पर जूझ रहा है, तब दुनिया लम्बे युद्धों को लेकर सुन्न पड़ चुकी है। इसके विपरीत, दक्षिण एशिया का एक विचित्र विरोधाभास सामने आता है—भारत और पाकिस्तान के बीच गहरा वैर होते हुए भी युद्ध प्रायः बहुत अल्पकालिक रहे हैं। फिर भी, विश्व समुदाय भारत-पाकिस्तान युद्ध की संभावना से इतना भयभीत क्यों है?

इसका उत्तर युद्ध की अवधि में नहीं, बल्कि उसके परिणामों की भयावहता में छिपा है। आज तक की स्थिति में पाकिस्तान विभाजन के बाद भी अपनी सीरतें नहीं बदली .उसके बाद पाकिस्तान ने  भारत के खिलाफ  1948,1956, 1965, 1971 और 1999 (कारगिल) में कई युद्ध लड़े हैं, पर इनमें से कोई भी कुछ हफ्तों से अधिक नहीं चला। पाकिस्तान हमारी क्षमा संस्कृति का बेजा फायदा उठाने की कोशिशें की,लेकिन फिर भी नहीं सुधरा. लेकिन आज की वैश्विक भू-राजनीतिक संरचना पूरी तरह बदल चुकी है। युद्ध के परमाणु रूप में बदलने की संभावना ने खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है।

असमान शक्ति-समीकरण

भारत और पाकिस्तान सैन्य दृष्टि से समान नहीं हैं। ग्लोबल फायरपावर इंडेक्स 2024 के अनुसार, भारत विश्व की चौथी सबसे शक्तिशाली सेना है, जबकि पाकिस्तान नौवें स्थान पर है। भारत के पास 14.5 लाख सक्रिय सैनिक हैं और उसका रक्षा बजट 82 अरब डॉलर से अधिक है। वहीं पाकिस्तान के पास 7 लाख से कम सैनिक हैं और उसका बजट 12 अरब डॉलर से भी कम है। भारत की तकनीकी बढ़त—अग्नि और ब्रह्मोस जैसी स्वदेशी मिसाइलों, उपग्रह निगरानी क्षमता और इंडो-पैसिफिक में नौसेना की उपस्थिति के साथ—निर्णायक है।

सैन्य असमानता ही नहीं, आर्थिक फासला भी अब असीमित हो चुका है। IMF 2024 के अनुसार भारत की GDP लगभग 3.9 ट्रिलियन डॉलर है और वह दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जबकि पाकिस्तान की GDP केवल 370 अरब डॉलर के आसपास है। 1990 के दशक में जब अमेरिका पाकिस्तान को सोवियत समर्थक भारत के खिलाफ संतुलन साधने के लिए समर्थन देता था, तब स्थिति अलग थी। अब वह रणनीति अप्रासंगिक हो चुकी है।

हिमालय क्षेत्र और अमरीकी स्वार्थ

2011 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का एक लीक इंटरव्यू ध्यान देने योग्य है, जिसमें उन्होंने अमेरिका की हिमालय क्षेत्र में रुचि को अप्रत्यक्ष रूप से चीन के खिलाफ एक अग्रिम मोर्चा के रूप में स्वीकारा। यह उस लंबे समय से चली आ रही अमेरिकी नीति का संकेत था, जिसमें “अस्थिरता” को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता था।

सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा पाकिस्तान की सेना और ISI को दिए गए समर्थन ने आतंकवाद और प्रॉक्सी युद्धों की स्थायी संरचना खड़ी कर दी। लेकिन आज अमेरिका खुद अंतर्विरोधों से जूझ रहा है—चीन के खिलाफ क्वाड में भारत की आवश्यकता, और साथ ही पाकिस्तान से पुराने सामरिक रिश्तों को पूरी तरह छोड़ न सकने की दुविधा।

बदला हुआ भारत

यह 1947 या 1971 वाला भारत नहीं है। 2019 के बालाकोट हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान की सीमा के भीतर घुसकर आतंकवाद के विरुद्ध अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय दिया। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति और दिल्ली की कड़ी पकड़ ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब “रक्षात्मक अस्पष्टता” का युग समाप्त हो चुका है।

भारत अब स्वयं को एक सभ्यतागत शक्ति के रूप में पेश कर रहा है, जो सैन्य दृष्टि से भी आत्मनिर्भर और आक्रामक है। फ्रांस, रूस और अमेरिका के साथ उसकी बढ़ती सामरिक साझेदारियां, हिंद महासागर में इन्फ्रास्ट्रक्चर और दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में सैन्य पहुँच भारत की वैश्विक महत्वाकांक्षा का प्रमाण हैं।

पाकिस्तान वहीं पुरानी लकीर पीट रहा है—सैन्य तख्तापलट, IMF से कर्ज, और भीतरी कट्टरवाद। स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान के अनुसार वहाँ मुद्रास्फीति 38% के उच्चतम स्तर पर है और विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ एक महीने के आयात को कवर कर पा रहा है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान की सेना बार-बार भारत के नाम पर डर दिखाकर अपनी पकड़ बनाए रखती है।

परमाणु डर

सबसे बड़ी वैश्विक चिंता परमाणु हथियारों को लेकर है। पाकिस्तान की घोषित नीति “पहले प्रयोग” की है, जबकि भारत “पहले प्रयोग नहीं” की नीति का पालन करता रहा है, हालाँकि हालिया वक्तव्यों में भारत ने इस नीति को “परिस्थिति आधारित” बताया है।

यह डर सिर्फ परमाणु बमों का नहीं है, बल्कि उसके प्रभावों का है। भारत-पाक युद्ध से फार्मा, वस्त्र और तकनीकी सेवाओं जैसे क्षेत्रों में वैश्विक आपूर्ति शृंखला ध्वस्त हो सकती है। अरबी सागर से जुड़ी तेल व्यापार की लाइनें खतरे में आ सकती हैं। पाकिस्तान में चीनी निवेश वाला CPEC (चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) भी चपेट में आ सकता है, जिससे बीजिंग की भूमिका भी संदेह के घेरे में आ जाएगी।

नक्शा फिर से बनेगा?

यदि पाकिस्तान युद्ध को बढ़ाता है और हारता है, तो उसे 1971 के बाद पहली बार क्षेत्रीय नुकसान उठाना पड़ सकता है। भारत के कई रणनीतिकारों का मानना है कि अगला युद्ध सिर्फ संघर्षविराम तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि दक्षिण एशिया की राजनीतिक संरचना को ही बदल सकता है। विभाजन का तर्क—जो विदेशी हितों की पूर्ति के लिए भारत को बाँटने की सोच पर आधारित था—उसका अंत हो सकता है।

यही वह संभावना है जो पश्चिमी देशों को सबसे अधिक भयभीत करती है। अगर पाकिस्तान विखंडित होता है, तो वहाँ शक्ति का ऐसा शून्य उत्पन्न होगा जिसे कोई भी बाहरी शक्ति स्थिर नहीं कर सकेगी। भारत द्वारा कुछ क्षेत्रों का अधिग्रहण दक्षिण एशिया की स्थायी रणनीति को ही बदल देगा।

 कोई शर्त नहीं चलेगी

दुनिया भले ही दक्षिण एशिया को अब भी शीतयुद्ध की दृष्टि से देखती हो, पर भारत अब वैसा नहीं सोचता। पाकिस्तान वह सामरिक मोहरा नहीं रहा जो कभी पश्चिम के लिए उपयोगी था। जैसे-जैसे क्षेत्रीय समीकरण बदल रहे हैं और भारत की शक्ति बढ़ रही है, एक निर्णायक समापन की संभावना अब यथार्थ बन रही है।

और जब वह क्षण आएगा, तो वह न तो वॉशिंगटन द्वारा तय होगा, न बीजिंग द्वारा—बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के अपने ऐतिहासिक ज़ख्मों और शायद उसके अंतिम उपचार से उपजेगा।

*पूनम शर्मा -वरिष्ठ पत्रकार ,इतिहासकार ,समाजसेवी ,कवि और लेखिका हैं .

सम्प्रति -समग्र भारत मीडिया समूह की प्रबंध संपादक हैं .

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