*शिवानन्द तिवारी
(निम्नलिखित पोस्ट 14 दिसंबर 2015 को मैंने फ़ेसबुक पर डाला था. भारत सरकार द्वारा दिलीप साहब को पद्म विभूषण अलंकरण से नवाज़ा गया था. गृह मंत्री अलंकरण प्रदान करने मुम्बई उनके घर आए थे. उस समय तक दिलीप कुमार जी विस्मृति की अंधकार में डूब चुके थे. क्या हो रहा है, इसका तनिक भी भान उनको नहीं था. हमारी सरकारें समय पर सम्मानित करना नहीं जानती हैं. उसी दिन उनको लेकर अपना यह संस्मरण फ़ेसबुक पर डाला था. आज फ़ेसबुक ने उसको सामने कर दिया. साझा कर रहा हूँ.)
*दिलीप साहब को कल पद्मविभूषण से नवाजा गया। उनके घर पर जब गृहमंत्री उनको इस अलंकरण से नवाज रहे थे दिलीप साहब को पता भी नहीं चला होगा की उनके साथ यह सब क्या हो रहा है।
जब उन्होंने पहली फ़िल्म की थी तब मैं एक साल का रहा होऊंगा। उनकी पहली फ़िल्म ज्वारभाटा 1944 में बनी थी। जबकि मेरा जन्म 43 के दिसम्बर में हुआ था।उम्र के इस लम्बे फासले के बावजूद दिलीप साहब मेरे सबसे प्रिय कलाकार थे। देवदास तो मैंने कई मर्तबा देखी होगी।लेकिन हास्य और हल्की फिल्मों में भी उनका अभिनय बेजोड़ रहा है।उनकी आज़ाद तो मैंने कई बार देखी है।मीना कुमारी भी उस फ़िल्म में खूब जमी हैं। दिलीप साहब का उस फ़िल्म में कई रूप है। सब एक दूसरे से जुदा-जुदा। उनमे से कौन रूप उन्नीस है और कौन बीस यह कहना कठिन है।
डायलाग बोलने का उन जैसा अंदाज मुझे किसी का नहीं लगा। निखालिस हिंदुस्तानी।लेकिन फ़िल्म वालों में अंग्रेजी बोलने का जो रोग है वह उस जमाने में भी था। इतनी अच्छी हिंदी बोलने वाले दिलीप कुमार भी इसके शिकार थे।यह देखकर मुझे उनसे थोड़ी निराशा हुई थी। वाक्या यह है कि इमरजेंसी के कुछ दिनों बाद तक जयप्रकाश जी अस्वस्थतता की वजह से मुम्बई में ही थे। नरीमन पॉयंट पर एक्सप्रेस टॉवर का पेंटहाउस उनका ठिकाना था।जेल से छूटने के बाद उनसे मिलने मैं वहाँ गया था। स्टेशन से सीधे एक्सप्रेस टावर पहुँचा।उन दिनों जेपी के साथ अब्राहम हुआ करते थे। तय हुआ कि जेपी से मिलने के पहले तैयार हो जाया जाय। आधे-पौन घण्टे बाद तैयार होकर बैठक खाने में पहुँचा।बैठका भरा हुआ था। जेपी बैठे थे और अधिकाँश लोग खड़े थे। मैं समझ नहीं पाया कि ये कौन लोग हैं। मैं भी उस मजमे में शामिल हो गया। उनमे सबसे ज्यादा परिचित चेहरा दिलीप साहब, मनोज कुमार, बी आर चोपड़ा आदि का था।
उसके कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश में भारी तूफान आया था। जान-माल की भारी क्षति हुई थी।उसीके सहायतार्थ आम लोंगो से मदत मांगने फ़िल्मी दुनिया के लोग सड़क पर निकलने वाले थे। उसके पूर्व प्रतीकात्मक रूप से उसकी शुरुआत जेपी से करने के लिए यहाँ आये थे।
बी आर चोपड़ा या जीपी सिप्पी बारी-बारी से सबका परिचय उनको बता रहे थे। उसी क्रम में मुझको छोड़ मेरे बगल वाले का परिचय बताया जाने लगा। लेकिन जेपी की नज़र मेरे चेहरे पर अटक गई।मैंने देखा कि उस फ़िल्मी मजमा में मेरा चेहरा देखकर वे मुझे पहचानने के लिए जोर लगा रहे थे।मैंने तुरन्त कहा कि ‘ हम शिवानन्द हंई।’ उसके बाद बच्चों जैसा खिलखिला कर जो वे हँसे वह भूलने लायक नहीं है। कहा कि ‘उहे त हम कहीं कि तूं कइसे एह लोग साथे आ गई ल!’
परिचय के बाद गप-शप का सिलसिला शुरू हुआ। देखा कि दिलीप साहब उनसे अंगरेजी में ही बतिया रहे हैं। जेपी हाँ-हूँ करते हिंदी में जवाब दे रहे थे। लेकिन दिलीप साहब अंगरेजी छोड़ नहीं रहे थे। मुझे उन पर गुस्सा भी आ रहा था और तरस भी। गुस्सा इसलिए कि जो आदमी इतना बढ़िया हिंदुस्तानी बोल सकता है वह उसके मुकाबले उससे कहीं हल्की अंगरेजी में बतिया रहा है। वह भी उस आदमी से जिसकी अंगरेजी गिने-चुने लोंगो जैसी होगी।
उस दिन दिलीप कुमार मेरी नज़रों में थोड़ा घट गए।
*शिवानन्द तिवारी