पूनम शर्मा
पश्चिमी दुनिया में चीन को लेकर आत्मविश्वास और आत्ममुग्धता का एक दौर रहा है। खासकर 2010 के बाद, यह विश्वास गहराया कि चीन को वैश्विक अर्थव्यवस्था में जितना अधिक जोड़ा जाएगा, वह उतना ही “जिम्मेदार हितधारक” बनता जाएगा। व्यापार बढ़ेगा, निवेश आएगा, और धीरे-धीरे राजनीतिक व्यवहार भी उदार होता जाएगा। आज, एक दशक से अधिक समय बाद, यही सोच पश्चिम के लिए आत्ममंथन का विषय बन गई है। सवाल अब यह नहीं कि चीन को समझने में गलती हुई—बल्कि यह है कि वह गलती इतनी बुनियादी क्यों थी।
ब्रिटेन इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है। डेविड कैमरन और जॉर्ज ऑसबोर्न के समय चीन-ब्रिटेन संबंधों को खुलेआम “गोल्डन एरा” कहा गया। तर्क सीधा था: व्यापार और रणनीति को अलग-अलग खाँचों में रखा जा सकता है। चीन के साथ आर्थिक साझेदारी होगी, लेकिन सुरक्षा और राष्ट्रीय हित अप्रभावित रहेंगे। उस समय यह दृष्टिकोण न केवल व्यावहारिक, बल्कि आधुनिक और दूरदर्शी भी माना गया। पीछे मुड़कर देखें तो यही सोच सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई।
पश्चिम की मूल भूल यह थी कि उसने चीन को अपने ही चश्मे से देखा। पश्चिमी लोकतंत्रों में कंपनियाँ सरकार से अलग होती हैं, संस्थाएँ स्वतंत्र होती हैं और कानून सत्ता की सीमाएँ तय करता है। इसी अनुभव के आधार पर यह मान लिया गया कि चीनी कंपनियाँ भी वैश्विक बाजार में “व्यावसायिक तर्क” से चलेंगी। यह मान्यता आज खतरनाक भ्रम लगती है। चीन कोई सामान्य राष्ट्र-राज्य नहीं है; वह एक एकदलीय, लेनिनवादी पार्टी-स्टेट है, जहाँ पार्टी और राज्य, व्यापार और राजनीति, सार्वजनिक और निजी—सब एक-दूसरे में गुँथे हुए हैं।
लेखक और विश्लेषक मार्टिन थॉर्ली की किताब All That Glistens इसी भ्रम की परतें खोलती है। पश्चिमी दृष्टिकोण से यह किताब असहज सवाल पूछती है: क्या ब्रिटेन और यूरोप सचमुच समझ पाए कि वे किससे डील कर रहे थे? हिन्कली पॉइंट परमाणु परियोजना में चीनी सरकारी कंपनी की भागीदारी, लंदन का रेनमिन्बी ट्रेडिंग हब बनना, और ब्रिटिश प्रॉपर्टी मार्केट में चीनी निवेश—ये सब अलग-अलग फैसले नहीं थे। ये एक बड़े पैटर्न का हिस्सा थे, जिसे उस समय “अवसर” और आज “रणनीतिक भोलापन” कहा जा सकता है।
थॉर्ली किसी जासूसी या अवैध साजिश का सनसनीखेज दावा नहीं करते। उनकी बात कहीं अधिक सूक्ष्म और इसलिए अधिक गंभीर है। वह दिखाते हैं कि कैसे पश्चिम की खुली राजनीतिक संस्कृति—दान, लॉबिंग, थिंक टैंक्स और मानद उपाधियों की परंपरा—चीनी प्रभाव के लिए सहज रास्ता बन जाती है। खासकर तब, जब सामने वाला तंत्र अत्यंत अनुशासित हो और उसके पीछे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का “यूनाइटेड फ्रंट” नेटवर्क काम कर रहा हो, जिसका उद्देश्य ही विदेशों में पार्टी के हितों को आगे बढ़ाना है।
पश्चिम ने चीन को “टुकड़ों में” देखने की कोशिश की—सरकार अलग, पार्टी अलग, कंपनियाँ अलग। यह मान लिया गया कि यदि कोई संस्था आर्थिक रूप से लाभदायक दिखती है, तो वह राजनीतिक रूप से तटस्थ भी होगी। लेकिन चीन में तटस्थता जैसी कोई अवधारणा नहीं है। पार्टी की शक्ति रोजमर्रा के हर निर्णय में दिखे या न दिखे, लेकिन वह हमेशा मौजूद रहती है—एक सुप्त नेटवर्क की तरह, जो सही समय पर सक्रिय हो सकता है। जैक मा जैसे वैश्विक आइकन का अचानक गायब हो जाना पश्चिम के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि चीन में अंतिम सत्ता कहाँ है।
दिलचस्प यह है कि चीन के सबसे कठोर आलोचक अक्सर वही पश्चिमी लोग बने, जिन्होंने वहाँ समय बिताया। हांगकांग से निकाले गए पत्रकार, चीन में काम कर चुके कारोबारी, या वहाँ पढ़ाने गए शिक्षाविद—उनकी चेतावनियाँ एक जैसी हैं। उनका अनुभव बताता है कि चीन पश्चिमी संस्थाओं की नकल तो करता है, लेकिन उनका सार नहीं अपनाता। वहाँ विश्वविद्यालय, अदालतें या कंपनियाँ स्वतंत्र इकाइयाँ नहीं, बल्कि पार्टी-तंत्र के अंग हैं।
इसके बावजूद, पश्चिम पूरी तरह जागा नहीं है। ब्रिटेन में आज भी यह सोच दिखती है कि सुरक्षा जोखिमों को स्वीकार करते हुए व्यापारिक अवसरों को अलग रखा जा सकता है। प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर का रुख इसी दुविधा को दर्शाता है—खतरे की स्वीकारोक्ति, लेकिन “असीम” आर्थिक संभावनाओं का मोह भी। यह वही पुराना आकर्षण है, वही चमक, जिसने पहले भी सावधानी को पीछे धकेला था।
पश्चिमी दृष्टिकोण से साफ है: चीन को समझने में की गई पुरानी भूलें दोहराना अब केवल आर्थिक जोखिम नहीं, बल्कि राजनीतिक और नैतिक कीमत भी वसूल सकता है। जो चमकता है, वह हमेशा सोना नहीं होता—और यह सबक पश्चिम ने जितनी देर से सीखा, उसकी कीमत उतनी ही भारी होती जा रही है।