डिजिटल नफरत का नया चेहरा: भारत-विरोधी षड्यंत्र का सच

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पूनम शर्मा
आज के दौर में जब तकनीक और राजनीति का मिलन होता है, तो कई बार ऐसे ‘दानव’ पैदा होते हैं जो समाज की जड़ों को खोखला करने का काम करते हैं। निक फुएंटिस (Nick Fuentes) इसी खतरनाक मशीनरी का एक पुर्जा हैं। कभी हाशिए पर रहने वाला यह श्वेत राष्ट्रवादी (White Nationalist) आज करोड़ों की व्यूअरशिप के साथ भारतीय समुदाय, विशेषकर हिंदुओं और भारतीय-अमेरिकियों के खिलाफ जहर उगल रहा है। लेकिन हालिया शोध से जो खुलासा हुआ है, वह और भी चौंकाने वाला है: यह नफरत ‘ऑर्गेनिक’ नहीं, बल्कि विदेशी बॉट फार्म्स द्वारा तैयार की गई एक ‘डिजिटल माया’ है।

नफरत का नया निशाना: भारतीयों के खिलाफ बढ़ता द्वेष

दशकों तक अमेरिकी धुर-दक्षिणपंथी राजनीति के केंद्र में यहूदी, अश्वेत और मुस्लिम समुदाय रहे। लेकिन 2025 तक आते-आते इस सूची में भारतीय समुदाय को प्रमुखता से शामिल कर लिया गया है। नेटवर्क कंटेजियन रिसर्च इंस्टीट्यूट (NCRI) की रिपोर्ट के अनुसार, फुएंटिस के सोशल मीडिया पर होने वाली 61% गतिविधियां पाकिस्तान, इंडोनेशिया और रूस जैसे देशों के बॉट फार्म्स से संचालित हो रही हैं।
यह केवल बयानबाजी नहीं, बल्कि एक रणनीतिक हमला है। ‘ग्रेट रिप्लेसमेंट थ्योरी’ (Great Replacement Theory) को अब भारतीय श्रम बाजार पर लागू किया जा रहा है। आरोप लगाया जा रहा है कि भारतीय पेशेवर, अमेरिकी मध्य वर्ग की नौकरियां “चोरी” कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि जुलाई से सितंबर 2025 के बीच भारतीयों को “आक्रामक” (Invaders) बताने वाली पोस्ट्स को 11 करोड़ से अधिक बार देखा गया।

श्रेष्ठता का भ्रम और तालिबान का समर्थन

श्वेत राष्ट्रवादी निक फुएंटिस विदेशी बॉट फार्म्स (पाकिस्तान, रूस) के जरिए अमेरिका में भारत-विरोधी नफरत का डिजिटल साम्राज्य खड़ा कर रहे हैं।फुएंतिस का वैचारिक विरोधाभास तब खुलकर सामने आता है जब वह एक तरफ ईसाइयत और पश्चिमी सभ्यता की रक्षा की बात करता है, तो दूसरी तरफ तालिबान जैसे कट्टरपंथी संगठन की प्रशंसा करता है। यह प्रशंसा धर्म के कारण नहीं, बल्कि उस ‘पितृसत्तात्मक सत्ता’ (Patriarchal Authority) और ‘हिंसक व्यवस्था’ के प्रति आकर्षण है, जिसे वह श्वेत राष्ट्रवाद के लिए आदर्श मानता है।
हिंदू समुदाय फुएंटिस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। भारतीय-अमेरिकी आज अमेरिका के हर महत्वपूर्ण क्षेत्र—प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और राजनीति—में अपनी जगह बना चुके हैं। वे बिना अपनी पहचान खोए सफल हो रहे हैं। यह ‘सिविलाइज़ेशनल कॉन्फिडेंस’ (सभ्यतागत आत्मविश्वास) फुएंटिस जैसे लोगों को रास नहीं आता, क्योंकि यह उनके उस दावे को झुठलाता है कि योग्यता केवल यूरोपीय मूल के लोगों की बपौती है।

एल्गोरिदम का हथियार और कृत्रिम लोकप्रियता

फुएंतिस की लोकप्रियता कोई जनाधार नहीं, बल्कि एक ‘तकनीकी मतिभ्रम’ है। शोध से पता चला है कि ‘स्वार्म टैक्टिक्स’ (Swarm Tactics) के जरिए फुएंटिस की पोस्ट्स को प्रकाशन के 30 मिनट के भीतर हजारों लाइक्स और रीट्वीट्स दिए जाते हैं। यह प्लेटफॉर्म के एल्गोरिदम को धोखा देकर कंटेंट को ‘For You’ फीड में जबरन डाल देता है।
“यह लोकतंत्र की आवाज नहीं, बल्कि कोडिंग और स्क्रिप्टिंग के जरिए निर्यात की गई नफरत है।”
मुख्यधारा के मीडिया ने भी अनजाने में इस गति को ‘महत्व’ समझ लिया और इस डिजिटल उपद्रवी को एक सांस्कृतिक अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया। जब मीडिया ऐसे तत्वों को ‘वैधता’ देता है, तो वह समाज के लिए और भी घातक हो जाता है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और संवैधानिक चुनौती

ऐतिहासिक रूप से, अमेरिका का संविधान ‘सभी पुरुषों की समानता’ की बात करता है, लेकिन व्यवहार में नस्लवाद हमेशा एक काला साया रहा है। 1924 के ‘इमिग्रेशन एक्ट’ से लेकर आज के ‘H-1B वीजा’ विवाद तक, भारतीयों को हमेशा एक ‘विदेशी तत्व’ के रूप में देखा गया।
भारतीय समुदाय का उदय अमेरिका की ‘मेरिटोक्रेसी’ (योग्यता तंत्र) की जीत है। लेकिन जब फुएंटिस जैसे लोग “वापस भारत जाओ” के नारे लगाते हैं, तो वे केवल नस्लवाद नहीं फैला रहे होते, बल्कि वे उस अमेरिकी वादे को चुनौती दे रहे होते हैं जो कहता है कि कड़ी मेहनत से कोई भी यहाँ अपनी जगह बना सकता है। यह संवैधानिक मूल्यों पर सीधा प्रहार है।

नफरत का बाजार और भविष्य का खतरा

आज नफरत का अपना एक अर्थशास्त्र है। क्लिक्स, विज्ञापन और सोशल कैपिटल के लिए भारतीय पहचान को एक ‘रणक्षेत्र’ बना दिया गया है। मैट फोर्नी जैसे छोटे विचारक इस आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। वे भारतीय समुदाय को ‘अवैध’ साबित करने की कोशिश करते हैं ताकि उनके खिलाफ किसी भी राजनीतिक कार्रवाई को नैतिक रूप से जायज ठहराया जा सके।
इसका सबसे गहरा प्रभाव उस भारतीय किशोर पर पड़ता है जो अमेरिका में बड़ा हो रहा है। उसके लिए यह केवल ‘इंटरनेट मीम’ नहीं, बल्कि एक मानसिक प्रताड़ना है जो उसके अस्तित्व पर सवाल उठाती है।

एक सामूहिक चेतावनी

निक फुएंटिस केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। वह उस व्यवस्था की विफलता का प्रतीक है जहां डिजिटल प्लेटफॉर्म शालीनता के बजाय विस्फोट को प्राथमिकता देते हैं। यदि इस औद्योगिक नफरत को समय रहते नहीं रोका गया, तो यह केवल भारतीय समुदाय तक सीमित नहीं रहेगी। घृणा का स्वभाव ही ऐसा है—यह जहाँ से शुरू होती है, वहाँ कभी खत्म नहीं होती।
आज भारतीयों के खिलाफ फैलाया जा रहा यह जहर कल किसी और समुदाय को निशाना बनाएगा। वक्त आ गया है कि तकनीक, नीति और समाज मिलकर इस ‘डिजिटल महामारी’ का इलाज ढूंढें, इससे पहले कि यह वर्चुअल नफरत वास्तविक हिंसा में बदल जाए।

भारतीय-अमेरिकी समुदाय की प्रतिक्रिया

निक फुएंटिस और उसके ‘ग्रॉइपर’ आंदोलन द्वारा फैलाई जा रही नफरत ने भारतीय-अमेरिकी समुदाय को एक नए रक्षात्मक और सक्रिय मोड़ पर खड़ा कर दिया है। 2025 में इस समुदाय ने न केवल डिजिटल स्तर पर, बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी अपनी आवाज बुलंद की है:
‘Enough!’ (बस, बहुत हुआ): प्रमुख भारतीय-अमेरिकी नेता अजय भूटोरिया और संगठनों ने “Go Back to India” जैसे नारों और शारीरिक हमलों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है। भूटोरिया ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका के सबसे अधिक टैक्स देने वाले और फॉर्च्यून 500 कंपनियों का नेतृत्व करने वाले समुदाय को अब और ‘प्रोफाइलिंग’ (लक्षित) नहीं किया जा सकता।
‘Many Roots, One Home’ अभियान: Stop AAPI Hate जैसे संगठनों ने फरवरी 2025 में यह नया अभियान शुरू किया है। इसका उद्देश्य भारतीय और अन्य एशियाई समुदायों को एकजुट करना है ताकि वे सामूहिक रूप से नस्लीय नफरत और आव्रजन विरोधी एजेंडे का मुकाबला कर सकें।
दस्तावेजीकरण और सुरक्षा: नफरत के बढ़ते ग्राफ को देखते हुए, समुदाय के भीतर अब ‘पासपोर्ट साथ रखने’ और ‘सार्वजनिक स्थानों पर सतर्क रहने’ जैसी चिंताएं बढ़ी हैं। Center for the Study of Organized Hate के अनुसार, अगस्त 2025 में दक्षिण-एशियाई लोगों के खिलाफ नस्लीय अपशब्दों में 75% की वृद्धि दर्ज की गई है, जिसके जवाब में अब कानूनी सहायता डेस्क और सामुदायिक निगरानी नेटवर्क सक्रिय किए गए हैं।
नफरत की मशीनरी पर लगाम: प्रस्तावित और नए डिजिटल कानून

सोशल मीडिया एल्गोरिदम और बॉट फार्म्स के जरिए नफरत फैलाने के खेल को रोकने के लिए 2025 में दुनिया भर में सख्त कदम उठाए जा रहे हैं:
अमेरिका में ‘Algorithm Accountability Act’ (एल्गोरिदम जवाबदेही अधिनियम)

अमेरिकी सीनेट में पेश किए गए इस कानून का सीधा लक्ष्य उन एल्गोरिदम को नियंत्रित करना है जो नफरत भरे कंटेंट को ‘वायरल’ करने के लिए जिम्मेदार हैं। यह कानून:
सोशल मीडिया कंपनियों को इस बात के लिए मजबूर करेगा कि वे अपने एल्गोरिदम का ऑडिट करें।
नफरत फैलाने वाली पोस्ट्स को कृत्रिम रूप से बढ़ावा (Artificial Amplification) देने पर भारी जुर्माने का प्रावधान करता है।2. बॉट फार्म्स और विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ कार्रवाई
अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों ने हाल ही में मार्क जुकरबर्ग और एलन मस्क जैसे तकनीकी दिग्गजों को पत्र लिखकर विदेशी बॉट फार्म्स (विशेषकर पाकिस्तान और रूस से संचालित) का पता लगाने और उन्हें ब्लॉक करने के लिए कड़े निर्देश दिए हैं।
न्याय विभाग (DOJ) अब उन नेटवर्क की जांच कर रहा है जो “राजनैतिक हिंसा” और “नस्लीय विभाजन” को भड़काने के लिए स्वचालित बॉट्स का उपयोग करते हैं।

 भारत के नए आईटी नियम (संशोधन 2025)

भारत सरकार ने भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए दिशा-निर्देशों में अहम बदलाव किए हैं:
ऑटोमेटेड टूल्स का अनिवार्य उपयोग: 50 लाख से अधिक यूजर्स वाले प्लेटफॉर्म्स को अब नफरत भरे कंटेंट का स्वतः पता लगाने के लिए उन्नत एआई टूल्स का उपयोग करना होगा।

कंटेंट हटाने की शक्तियाँ:

अब केवल डीआईजी और ज्वाइंट सेक्रेटरी स्तर के अधिकारी ही सोशल मीडिया से विवादित कंटेंट हटाने के आदेश जारी कर पाएंगे, जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित होगी।

आगे का रास्ता

तकनीक ने जहाँ  नफरत को ‘ग्लोबल’ बना दिया है, वहीं इन कानूनों का उद्देश्य नफरत के इस ‘बिज़नेस मॉडल’ को खत्म करना है। निक फुएंटिस जैसे लोग अब केवल सामाजिक विरोध का नहीं, बल्कि कानूनी जाँच के घेरे में भी हैं।

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