पूनम शर्मा
मुंबई की राजनीति एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ी है जहाँ भावनाएँ, विरासत और गणित—तीनों टकरा रहे हैं। बीएमसी चुनाव केवल नगर निगम का चुनाव नहीं है, यह तय करेगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे नाम अब भी ताकत है या केवल स्मृति। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का संभावित साथ आना इसी बेचैनी का परिणाम है—यह आत्मविश्वास नहीं, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई का संकेत है।
अगर हम 2019 से घटनाओं की श्रृंखला देखें, तो साफ़ दिखता है कि उद्धव ठाकरे ने राजनीतिक भरोसे की सबसे बड़ी पूंजी—जनादेश—को हल्के में लिया। भाजपा के साथ चुनाव लड़कर, मुख्यमंत्री पद को लेकर अस्पष्टता रखना, और नतीजों के ठीक बाद पाला बदल लेना, मतदाता के मन में “विश्वासघात” की छवि बनाता है। राजनीति में गठबंधन बदलते रहते हैं, लेकिन वोटर की याददाश्त कमज़ोर नहीं होती।
शिवसेना का जो विघटन
यही कारण है कि 2022 के बाद शिवसेना का जो विघटन हुआ, वह केवल दल टूटने की कहानी नहीं थी, बल्कि कोर वोटर के खिसकने की प्रक्रिया थी। एकनाथ शिंदे के साथ जो 17% वोट गया, वह यूँ ही नहीं गया—वह बाला साहब ठाकरे के हिंदुत्व और जमीनी संगठन से जुड़ा वोट था। यह मान लेना कि वह वोट कांग्रेस या मुस्लिम समर्थन से आया था, वास्तविकता से आंख मूंदने जैसा है।
मुंबई में उद्धव ठाकरे की स्थिति और भी नाज़ुक है। पिछले चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस के साथ रहते हुए भी उनकी हिस्सेदारी लगभग 23% के आसपास रही। अब कांग्रेस का संगठन और प्रभाव, दोनों पहले जैसे नहीं रहे। ऐसे में राज ठाकरे के साथ आने से अगर 6–7% अतिरिक्त वोट भी मिल जाए, तो कुल मिलाकर 30% के आसपास की तस्वीर बनती है।
इसके उलट, भाजपा और एकनाथ शिंदे का गठबंधन मुंबई में लगभग 45–46% वोट शेयर के साथ खड़ा दिखता है। यह अंतर साधारण अंकगणित नहीं, बल्कि चुनावी बीजगणित है—जहाँ 30 बनाम 46 की लड़ाई में परिणाम पहले से तय दिखता है।
राजनीतिक विश्वसनीयता
एक और बड़ा बदलाव है वोटर की मानसिकता। आज का मतदाता केवल मराठी अस्मिता या पारिवारिक विरासत पर वोट नहीं करता। बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार, देश के भीतर सुरक्षा, और राजनीतिक स्थिरता जैसे मुद्दे अब मुंबई के मध्यम वर्ग और मराठी हिंदू मतदाता को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे में ठाकरे बंधुओं का मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर दिखना, उनके बचे-खुचे हिंदुत्व समर्थकों को भी असहज करता है।
परिवार को बार-बार चुनावी मंच पर दिखाना—पुरानी तस्वीरें, साझा रैलियाँ, “भाई-भाई” का नैरेटिव—भावनात्मक अपील हो सकती है, लेकिन यह राजनीतिक विश्वसनीयता का विकल्प नहीं बन सकती। बाला साहब ठाकरे का प्रभाव इसलिए था क्योंकि उनके पास विचार, साहस और स्पष्टता थी—सिर्फ़ परिवार नहीं।
एक और अहम पहलू है तीसरा मोर्चा। कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार), प्रकाश आंबेडकर, ओवैसी—ये सभी मुंबई में अपने-अपने वोट काटेंगे। मुस्लिम वोट भी अब एकजुट नहीं है। ऐसे में ठाकरे गठबंधन को जो थोड़ी बहुत राहत मिल सकती थी, वह भी बिखरती दिखती है।
रणनीति
बीजेपी-शिंदे खेमे की रणनीति अपेक्षाकृत स्पष्ट है—सीट शेयरिंग, संगठन, और “स्टेबल गवर्नेंस” का नैरेटिव। भले ही अंदरूनी खींचतान हो, लेकिन चुनाव के दिन एकजुट रहने का संदेश दिया जा चुका है। यही कारण है कि अनुमान लगाया जा रहा है कि यह गठबंधन 100 से अधिक बीएमसी सीटों तक पहुँच सकता है।
निष्कर्ष
साफ़ है। यह चुनाव दो भाइयों की भावनात्मक पुनर्मिलन कथा नहीं है, बल्कि उस राजनीति का फैसला है जो भविष्य देख रही है बनाम उस राजनीति के, जो अतीत को पकड़कर खड़ी है। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का साथ आना अगर 10 साल पहले होता, तो कहानी अलग होती। आज यह प्रयास एक डैमेज कंट्रोल की तरह दिखता है।
मुंबई की जनता अब “नाम” नहीं, “नतीजा” देखती है। और राजनीति में जब विश्वास टूटता है, तो उसे जोड़ने के लिए सिर्फ़ परिवार नहीं, ठोस दिशा चाहिए। यही बीएमसी चुनाव की असली कसौटी है।