पूनम शर्मा
त्योहार, भय और राष्ट्रीय विवेक
क्रिसमस से ठीक पहले के दिन देश के कई हिस्सों—छत्तीसगढ़, असम, केरल और मध्य प्रदेश—से आई घटनाओं ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि क्या भारत में आस्था अब सुरक्षा के बजाय असुरक्षा का कारण बनती जा रही है। मॉल में क्रिसमस सजावट तोड़ना, स्कूलों में त्योहार की तैयारियों को जलाना, बच्चों के कैरल समूह पर हमला और चर्च परिसर में एक दृष्टिबाधित महिला से बदसलूकी—ये घटनाएं केवल कानून-व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि सामाजिक धैर्य की भी परीक्षा हैं।
घटनाओं की कड़ी: क्या हुआ और क्यों हुआ
छत्तीसगढ़ के रायपुर में ‘छत्तीसगढ़ बंद’ के दौरान एक मॉल में क्रिसमस सजावट को नुकसान पहुँचाया गया। पुलिस के अनुसार 40–50 लोगों की भीड़ ने नारेबाज़ी करते हुए पेड़ और सजावटी सामग्री तोड़ी। असम के नलबाड़ी में एक स्कूल और दुकानों में क्रिसमस से जुड़ी वस्तुओं को जलाया गया; इस मामले में कुछ संगठनों से जुड़े पदाधिकारियों की गिरफ्तारी हुई। केरल के पलक्कड़ में बच्चों का कैरल समूह हमला झेलता है। मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक वायरल वीडियो सार्वजनिक बहस का कारण बनता है, जिसमें एक भाजपा कार्यकर्ता और एक दृष्टिबाधित महिला के बीच तीखी झड़प दिखती है।
इन घटनाओं पर विपक्षी नेताओं की तीखी प्रतिक्रियाएँ आईं, वहीं कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से हस्तक्षेप की अपील की—यह कहते हुए कि धार्मिक स्वतंत्रता संविधान की आत्मा है।
संविधान का दायरा: आस्था की स्वतंत्रता बनाम सार्वजनिक व्यवस्था
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक नागरिक को धर्म मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है—बशर्ते सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य का उल्लंघन न हो। यही संतुलन राज्य की जिम्मेदारी तय करता है। जब त्योहारों के दौरान भीड़ हिंसा करती है या डर का माहौल बनता है, तो यह केवल किसी समुदाय का प्रश्न नहीं रहता; यह संवैधानिक संरक्षण की कसौटी बन जाता है।
दूसरा पक्ष: हिंदू त्योहारों पर हिंसा और अनदेखी
इस विमर्श का दूसरा पक्ष भी उतना ही वास्तविक है। दुर्गा विसर्जन के दौरान पश्चिम बंगाल और बिहार में पथराव, मंदिरों पर हमले, और उत्तर-पूर्व व कुछ आदिवासी क्षेत्रों में कथित जबरन धर्मांतरण—ये मुद्दे वर्षों से उठते रहे हैं। आलोचना यह है कि मुख्यधारा मीडिया इन घटनाओं को वैसी निरंतरता और तीव्रता से नहीं उठाता, जैसी क्रिसमस से जुड़ी घटनाओं में दिखती है। नतीजा यह कि सार्वजनिक बहस अक्सर चयनात्मक प्रतीत होती है, जिससे अविश्वास और ध्रुवीकरण बढ़ता है।
मीडिया की भूमिका: रिपोर्टिंग या फ्रेमिंग?
लोकतंत्र में मीडिया का काम घटनाओं को संदर्भ के साथ प्रस्तुत करना है—न कि किसी एक नैरेटिव को पुष्ट करना। जब एक समुदाय की पीड़ा प्रमुखता पाती है और दूसरे की हाशिए पर चली जाती है, तो यह ‘न्याय’ नहीं, ‘फ्रेमिंग’ बन जाती है। जिम्मेदार पत्रकारिता का तकाज़ा है कि हर आस्था-संबंधी हिंसा को समान संवेदनशीलता, तथ्यपरकता और निरंतरता से कवर किया जाए।
राजनीति और सड़कों का तनाव
धार्मिक पहचान की राजनीति सड़कों पर उतरते ही कानून-व्यवस्था का संकट बन जाती है। नारे, प्रतीक और अफवाहें भीड़ को उकसाती हैं। चाहे वह कथित धर्मांतरण के विरोध में बंद हो या त्योहारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति—समाज और सरकार का दायित्व है कि वह समय रहते संवाद, सुरक्षा और सख़्त कार्रवाई के माध्यम से तनाव को रोके।
समाधान की दिशा: कानून, संवाद और समानता
पहला, कानून का निष्पक्ष और त्वरित पालन—दोषियों की पहचान और दंड, चाहे वे किसी भी विचारधारा से हों। दूसरा, स्थानीय स्तर पर अंतर-धार्मिक संवाद—त्योहारों से पहले सामुदायिक बैठकों और शांति समितियों की सक्रियता। तीसरा, मीडिया की आत्म-समीक्षा—कवरेज में संतुलन और संदर्भ। चौथा, राजनीतिक नेतृत्व की स्पष्ट भाषा—हिंसा की बिना शर्त निंदा।
निष्कर्ष: भारत का विचार—डर नहीं, विश्वास
भारत का संवैधानिक विचार किसी एक धर्म की सुरक्षा नहीं, सभी आस्थाओं की गरिमा है। क्रिसमस, दुर्गा पूजा, ईद या किसी भी पर्व पर भय का साया हमारे राष्ट्रीय चरित्र के विपरीत है। आस्था की स्वतंत्रता तभी अर्थपूर्ण है जब वह समान सुरक्षा, समान संवेदना और समान न्याय के साथ आए। सवाल किसी एक समुदाय का नहीं—भारत के विवेक का है।