पूनम शर्मा
एक तस्वीर जिसने अंतरात्मा को झकझोरना चाहिए था
बांग्लादेश में दीपु दास को पेड़ से बाँधकर पीटने की वह तस्वीर दक्षिण एशिया की अंतरात्मा को झकझोर देने के लिए काफी थी। यह वह क्षण था जब भारत सरकार से त्वरित बयान, आपात कूटनीति और नैतिक स्पष्टता की अपेक्षा थी। लेकिन जो सामने आया, वह था—सोचा-समझा, रणनीतिक और भयावह सन्नाटा।
बांग्लादेश में हिंदुओं की हत्याएँ नहीं रुकी हैं; वे सिर्फ सुर्खियों से गायब हो गई हैं। और हिंदुओं की सभ्यतागत भूमि कहलाने वाला भारत मानो केवल खाद्य सहायता और कूटनीतिक फुसफुसाहट तक सीमित होकर संतुष्ट बैठा है।
भारत की चुप्पी और कूटनीतिक शब्दजाल
नई दिल्ली की ओर से न कोई स्पष्ट निंदा आई, न कोई लाल रेखा खींची गई, न कोई चेतावनी। इसके उलट, बांग्लादेश हाई कमीशन की ओर से “स्पष्टीकरण” दिए जा रहे हैं—ऐसी सुसंस्कृत कूटनीतिक भाषा में, जो हिंसा को शालीन शब्दों में ढक देती है और जिम्मेदारी को धुंधला कर देती है।
बांग्लादेश के वास्तविक सत्ता-केंद्र मोहम्मद यूनुस ने न शब्दों में खेद व्यक्त किया, न कार्रवाई का संकेत दिया। फिर भी वैश्विक मंचों पर उनकी प्रशंसा जारी है।
मोहम्मद यूनुस: बिना नागरिकता का सबसे ताकतवर शासक
यह संयोग नहीं है। मोहम्मद यूनुस कोई नए खिलाड़ी नहीं हैं। वे वैश्विक सत्ता गलियारों के पुराने और अनुभवी चेहरा हैं—एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास बांग्लादेश की नागरिकता तक नहीं, फिर भी वही उसके शासन तंत्र का शीर्ष है। वे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो वैचारिक रूप से सुविधाजनक, संस्थागत रूप से संरक्षित और भू-राजनीतिक रूप से “अपरिहार्य” माना जाता है। वे लंबा खेल खेलना जानते हैं—और उसे बखूबी खेल रहे हैं।
वैश्विक समर्थन और हिंदू जीवन की कीमत
अमेरिका सहित लगभग सभी बड़े देश आज बांग्लादेश की मौजूदा व्यवस्था के पक्ष में खड़े हैं। यह समर्थन अज्ञानता से नहीं, उपयोगिता से उपजा है।
बांग्लादेश आज वैश्विक उदारवादी कथा में फिट बैठता है—एंटी-मेजोरिटेरियन छवि, एनजीओ-अनुकूल शासन और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन की राजनीति। इस संरेखण की कीमत क्या है? हिंदुओं का जीवन। और दुनिया ने तय कर लिया है कि यह कीमत स्वीकार्य है।
मोदी सरकार और ‘मानवीय’ कूटनीति का भ्रम
सबसे अधिक विचलित करने वाली बात इसमें भारत की भूमिका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मोहम्मद यूनुस के साथ कभी कार्यात्मक संबंध रहे हैं। अब वही संबंध चुपचाप समायोजन में बदलते दिखते हैं। हिंदुओं पर हमले, मंदिरों का अपमान और लक्षित हिंसा के बावजूद भारत की प्रतिक्रिया मानवीय निर्यात तक सिमटी रही है—चावल, आलू, प्याज़—वह भी लगभग पानी के भाव।
करुणा नहीं, नैतिक पलायन
इसे करुणा कहा जा रहा है। हकीकत में यह नैतिक पलायन है। चावल सुरक्षा नहीं देता। आलू भीड़ से नहीं बचाता। प्याज़ गरिमा वापस नहीं लाता। उलटे, ये आपूर्तियाँ उसी समाज को सुदृढ़ करती हैं, जहाँ कट्टर तत्व बेखौफ सक्रिय हैं।
खून के बदले अनाज: कूटनीति या इनकार?
विडंबना पीड़ादायक है। भारत भोजन भेजता है और बदले में सन्नाटा पाता है। खून के बदले चावल। उत्पीड़न के बदले आलू-प्याज़। यह कूटनीति नहीं—लॉजिस्टिक्स में लिपटा हुआ इनकार है।
सैन्य कार्रवाई नहीं, लेकिन दबाव भी नहीं
भारत सैन्य कार्रवाई नहीं करेगा—और न ही करनी चाहिए। लेकिन कूटनीति केवल हथियारों तक सीमित नहीं होती। सार्वजनिक निंदा, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मुद्दा, आर्थिक शर्तें, वीज़ा प्रतिबंध—इनमें से किसी का गंभीर प्रयोग नहीं हुआ।
गलत धारणा: क्या बांग्लादेश भारत से डरता है?
यह मान लिया गया है कि बांग्लादेश भारत से डरता है। यह धारणा खतरनाक रूप से पुरानी है। आज बांग्लादेश भारत की नाराज़गी से नहीं, वैश्विक अलगाव से डरता है। और जब तक वैश्विक शक्तियाँ यूनुस के साथ हैं, ढाका को दिशा बदलने की आवश्यकता नहीं दिखती।
एक खतरनाक संदेश अल्पसंख्यकों के लिए
इस चुप्पी का सबसे बड़ा नुकसान संदेश का है।यह बताता है कि उत्पीड़न को नैरेटिव से ढका जा सकता है, कि मानवाधिकार भू-राजनीति की सुविधा पर निर्भर हैं।
सभ्यतागत जिम्मेदारी और इतिहास का फैसला
भारत की जिम्मेदारी प्रतीकात्मक नहीं, ऐतिहासिक है। जब पड़ोसी देश में हिंदुओं को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया जाए और भारत चुप रहे, तो चुप्पी सहमति बन जाती है।
संयम या कमजोरी?
यदि आज बांग्लादेश भारत से नहीं डरता, तो यह भारत की शक्ति की कमी नहीं—संकल्प की कमी है। इतिहास चावल की मात्रा नहीं गिनेगा। इतिहास यह याद रखेगा कि जब उसके लोग लहूलुहान थे, तब भारत ने आवाज़ उठाई या नहीं।