पूनम शर्मा
आज जब विश्व क्रिसमस का पर्व मना रहा है और चर्चों की घंटियां शांति और सद्भाव का संदेश दे रही हैं, तब भारत की भूमि पर एक प्राचीन सभ्यता और एक वैश्विक मत के बीच के ऐतिहासिक संबंधों का विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है। बेलूर मठ में माँ काली के सान्निध्य में जब ईसा मसीह और मैरी के चित्र की पूजा होती है, तो वह एक विलक्षण दृश्य प्रस्तुत करता है। लेकिन क्या यह दृश्य उस गहरे कड़वे सच को ढक सकता है जो दशकों से हिंदू-ईसाई संवाद को बाधित कर रहा है? जब तक संवाद के पीछे धर्मान्तरण का ‘छिपा हुआ एजेंडा’ रहेगा, तब तक यह केवल एक रणनीतिक युद्ध बना रहेगा, वास्तविक मिलन नहीं।
ऐतिहासिक घाव और धर्मान्तरण की आक्रामक विरासत
हिंदू और ईसाई मत का सामना महज दो विचारों का मिलन नहीं, बल्कि एक जीवंत सभ्यता और एक विस्तारवादी धर्म का टकराव रहा है। एक तरफ दुनिया की सबसे पुरानी आध्यात्मिक सभ्यता है, जो तथाकथित ‘पेगन’ (Pagan) दुनिया का आखिरी जीवित गढ़ है। दूसरी तरफ वह मत है जिसने धर्मयुद्धों (Crusades), इनक्विजिशन और औपनिवेशिक विस्तार के जरिए अपनी जड़ें जमाईं।
इतिहास गवाह है कि ईसाइयत का भारत में प्रवेश अक्सर सेवा (शिक्षा और स्वास्थ्य) के ‘सॉफ्ट पावर’ के पीछे ‘आध्यात्मिक विजय’ की आकांक्षा लेकर आया। जब संवाद का उद्देश्य सत्य की खोज के बजाय संख्या बल बढ़ाना हो जाता है, तो वहां विश्वास की जगह संदेह पैदा होता है। यही कारण है कि हिंदू समाज ने ईसाइयत को अक्सर एक ‘सभ्यतागत खतरे’ के रूप में देखा है।
‘इनकल्चरेशन’: संवाद या सांस्कृतिक अपहरण?
1950 में फ्रांसीसी मिशनरियों द्वारा स्थापित ‘सच्चिदानंद आश्रम’ इस जटिलता का सबसे सटीक उदाहरण है। मिशनरी जूल्स मोंचानिन और हेनरी ले सॉक्स ने भगवा वस्त्र धारण किए और हिंदू नाम अपनाए। लेकिन मोंचानिन का स्पष्ट मानना था कि अद्वैत वेदांत को ‘ईसाई बनने के लिए मरना होगा’।
इसी तरह बेडे ग्रिफिथ्स ने ‘ओम’ और ‘नटराज’ जैसे पवित्र हिंदू प्रतीकों का ईसाईकरण करने की कोशिश की। इसे ‘इनकल्चरेशन’ (Inculturation) का नाम दिया गया। लेकिन हिंदू विद्वानों, विशेषकर सीता राम गोयल जैसे इतिहासकारों ने इसे ‘धोखे की रणनीति’ करार दिया। गोयल का तर्क था कि यह संवाद नहीं, बल्कि हिंदू संस्कृति के उन ‘फॉल्ट लाइन्स’ की टोह लेना है जहाँ से धर्मान्तरण की राह आसान हो सके। उनकी पुस्तक ‘जीसस क्रिस्ट: एन आर्टिफाइस ऑफ एग्रेशन’ इसी आक्रामक धर्मशास्त्र के विरुद्ध एक बौद्धिक प्रतिवाद है।
समन्वय का पथ: रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का दृष्टिकोण
संस्थानिक ईसाई धर्म के विपरीत, भारतीय ऋषियों ने एक बिल्कुल अलग मार्ग दिखाया— ‘समन्वय’ का मार्ग। 1874 में श्री रामकृष्ण परमहंस ने ईसा मसीह का एक रहस्यमयी अनुभव प्राप्त किया था। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए उन्हें अपना हिंदू स्वरूप नहीं छोड़ना पड़ा। उन्होंने ईसा को ईश्वर के अनंत नामों में से एक माना।
स्वामी रंगनाथनंद ने अपनी व्याख्यानमाला ‘द क्राइस्ट वी अडोर’ (The Christ We Adore) में ईसा मसीह को एक ‘महायोगी’ के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने ईसा के संदेश को ‘साधना’ और आंतरिक अनुभव से जोड़ा, न कि किसी विशेष चर्च की सदस्यता से। उनके अनुसार, ईसा मसीह मानवीय आध्यात्मिक खजाने को समृद्ध करते हैं, लेकिन वे अन्य परंपराओं के विनाश की मांग नहीं करते।
हिंदुत्व और ईसाइयत: प्रतिरोध या आत्मसात?
अक्सर हिंदुत्व को ईसाई विरोधी चित्रित किया जाता है, लेकिन वैचारिक धरातल पर यह विरोध ईसाइयत से नहीं, बल्कि ‘धर्मान्तरण की राजनीति’ से है। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने ईसा मसीह के प्रति सम्मान व्यक्त किया था, लेकिन उन्होंने चर्च की राजनीतिक सत्ता और उसके भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार किया।
एक दिलचस्प संदर्भ फादर एंथोनी एलेंजिमिट्टम का है, जिन्होंने 1951 में आरएसएस की कार्यप्रणाली पर लिखा कि ‘हिंदू’ शब्द एक भौगोलिक या सांप्रदायिक पहचान नहीं, बल्कि भारत की ‘अनिवार्य भावना’ (Essential Spirit) है। वहीं, मधुकर दत्तात्रेय देओरस ने पश्चिमी ईसाई समाज के उस सुधारवाद की प्रशंसा की जिसने विज्ञान (विकासवाद) और धर्म (जेनेसिस) के बीच संतुलन बनाया। उन्होंने आह्वान किया कि जैसे पश्चिम ने रूढ़ियों को त्यागा, वैसे ही हिंदुओं को भी ‘वर्ण’ जैसी सामाजिक जड़ताओं को त्यागकर विकासवादी भविष्य की ओर बढ़ना चाहिए।
संवैधानिक नैतिकता और सेवा का प्रश्न
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 ‘धर्म के प्रचार’ (Propagate) की स्वतंत्रता देता है, लेकिन क्या इसमें ‘धोखे या प्रलोभन’ से धर्मान्तरण शामिल है? महात्मा गांधी ने 1935 में ही स्पष्ट कर दिया था कि यदि मिशनरी केवल निस्वार्थ सेवा के लिए आते हैं, तो उनका स्वागत है। लेकिन सेवा और सहायता को धर्मान्तरण के साथ जोड़ना नैतिक रूप से अनैतिक है।
हिंदू विचारकों जैसे राम स्वरूप ने तर्क दिया कि संवाद तभी सार्थक हो सकता है जब ईसाई धर्मशास्त्र अपने ‘अनन्य सत्य’ (Exclusive Truth) के दावे को त्याग दे। जब तक यह माना जाएगा कि ‘केवल हमारे माध्यम से ही मोक्ष संभव है’, तब तक दूसरे धर्म को तुच्छ और सुधारने योग्य ही समझा जाएगा।
भविष्य की राह: क्या ईसाई धर्म का ‘हिंदूकरण’ संभव है?
भविष्य का संवाद ‘रणनीतिक सामंजस्य’ से आगे बढ़कर ‘आंतरिक परिवर्तन’ की माँग करता है। एंथोनी डी मेलो और टेलहार्ड डी चार्डिन जैसे विचारकों ने ईसाइयत को अधिक समावेशी और अद्वैत सिद्धांतों के करीब लाने का प्रयास किया। हालांकि, वेटिकन ने अक्सर ऐसे प्रयासों को दबाया है।
ईसाई धर्म का ‘हिंदूकरण’ का अर्थ यह नहीं है कि वे अपनी पहचान छोड़ दें, बल्कि यह है कि वे भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों को गहराई से आत्मसात करें। क्रिसमस एक ऐसा अवसर हो सकता है जहाँ ईसा का जन्म मानवीय चेतना में हो, न कि वह किसी दूसरी परंपरा के विनाश का कारण बने।
निष्कर्ष:
सच्चा संवाद ‘शिकारी और शिकार’ के बीच नहीं हो सकता। इसके लिए ईसाई जगत को धर्मान्तरण की आक्रामकता छोड़नी होगी और हिंदू समाज को अपने समन्वयकारी सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए संवाद करना होगा। जैसा कि श्री रामकृष्ण ने कहा था— “ईश्वर के नाम अनेक हैं और उस तक पहुँचने के रास्ते अनंत… हवाएं हर तरफ से बहती हैं और समुद्र की ओर ही जाती हैं।”
क्या ईसाई मिशनरी इस वैश्विक सत्य को स्वीकार कर पाएंगे? उत्तर भविष्य के गर्भ में है, लेकिन संवाद की मेज पर पहली शर्त ईमानदारी होनी चाहिए।