पूनम शर्मा
उत्तर प्रदेश की राजनीति में “कानून-व्यवस्था” केवल प्रशासनिक शब्द नहीं, बल्कि एक सशक्त राजनीतिक नारा बन चुका है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2017 में सत्ता संभालते ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी सरकार की प्राथमिकता अपराध पर सख़्ती, माफ़िया पर प्रहार और राज्य में “शून्य सहिष्णुता” की नीति होगी। बीते वर्षों में पुलिस मुठभेड़ों, माफ़ियाओं की संपत्ति जब्ती, गैंगस्टर एक्ट और बुलडोज़र कार्रवाई को इसी नीति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया। लेकिन इसी बीच अलिगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में एक शिक्षक की दिनदहाड़े हत्या जैसी घटनाएँ राज्य के कानून-व्यवस्था के दावों पर गंभीर सवाल भी खड़े करती हैं।
योगी मॉडल: सख़्ती, प्रतीक और प्रचार
योगी आदित्यनाथ के शासनकाल में पुलिस को अधिक “एक्शन मोड” में लाया गया। अपराधियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई, एनकाउंटर संस्कृति, और संगठित अपराध पर कड़ा रुख़—इन सबने एक संदेश दिया कि अपराध करने वालों के लिए उत्तर प्रदेश अब “सेफ ज़ोन” नहीं रहा। सरकार का दावा है कि इससे आम नागरिकों में सुरक्षा की भावना बढ़ी और निवेशकों का भरोसा भी मजबूत हुआ। मुख्यमंत्री अक्सर विधानसभा और सार्वजनिक मंचों से कहते रहे हैं कि बेहतर कानून-व्यवस्था के कारण ही राज्य में निवेश आ रहा है।
यह भी सच है कि कुछ क्षेत्रों में संगठित अपराध और खुलेआम माफ़िया वसूली जैसी घटनाओं में कमी महसूस की गई। बड़े नामों पर कार्रवाई ने सरकार की छवि एक सख़्त प्रशासक की बनाई। लेकिन सवाल यह है कि क्या कानून-व्यवस्था केवल सख़्ती और प्रतीकों से मापी जा सकती है?
अलिगढ़ की घटना: सुरक्षा के दावों पर करारा तमाचा
अलिगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित और अपेक्षाकृत सुरक्षित माने जाने वाले परिसर में एक शिक्षक की गोली मारकर हत्या—वह भी सिर में कई गोलियाँ—इस बात की याद दिलाती है कि अपराध का दुस्साहस अभी समाप्त नहीं हुआ है। हमलावरों का खुलेआम धमकी देना और घटना के बाद फरार हो जाना, यह दिखाता है कि अपराधियों में कानून का भय हर जगह समान रूप से प्रभावी नहीं है।
यह घटना इसलिए भी अधिक संवेदनशील बन जाती है क्योंकि यह मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में कानून-व्यवस्था की तारीफ़ किए जाने के कुछ ही घंटों बाद हुई। ऐसे समय में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या सरकारी दावे ज़मीनी हकीकत से मेल खाते हैं, या फिर कानून-व्यवस्था की तस्वीर क्षेत्र और परिस्थिति के अनुसार बदल जाती है?
भय का संतुलन: अपराधियों में डर, नागरिकों में क्या?
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून-व्यवस्था का असली पैमाना यह होता है कि आम नागरिक कितना सुरक्षित महसूस करता है। योगी सरकार के समर्थक कहते हैं कि आज अपराधी डरते हैं, इसलिए अपराध कम हुए हैं। आलोचक यह तर्क देते हैं कि डर का यह संतुलन कई बार आम नागरिकों तक भी फैल जाता है—खासकर तब, जब पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठते हैं या जांच और न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता संदिग्ध लगती है।
अलिगढ़ की घटना में भी सबसे बड़ा सवाल यही है: अपराध कैसे हुआ, क्यों हुआ और क्या अपराधी पकड़े जाएँगे? अगर त्वरित और निष्पक्ष जांच होती है, दोषियों को सज़ा मिलती है, तभी कानून-व्यवस्था का दावा विश्वसनीय बनता है। केवल कार्रवाई के बाद बयान देना पर्याप्त नहीं है।
निवेश और सुरक्षा: क्या सीधा संबंध है?
सरकार बार-बार कहती है कि बेहतर कानून-व्यवस्था से निवेश बढ़ा है। इसमें आंशिक सच्चाई हो सकती है, क्योंकि उद्योग स्थिरता और सुरक्षा चाहते हैं। लेकिन निवेश केवल पुलिस सख़्ती से नहीं आता; इसके लिए सामाजिक शांति, संस्थागत भरोसा और दीर्घकालिक सुरक्षा भी ज़रूरी है। यदि विश्वविद्यालय परिसर, शिक्षक, छात्र या आम नागरिक खुद को असुरक्षित महसूस करेंगे, तो यह संदेश निवेश के लिए भी नकारात्मक होगा।
निष्कर्ष: दावों से आगे, भरोसे की ज़रूरत
योगी आदित्यनाथ के शासन में कानून-व्यवस्था को लेकर एक स्पष्ट राजनीतिक और प्रशासनिक दिशा दिखती है—सख़्ती और त्वरित कार्रवाई। लेकिन अलिगढ़ जैसी घटनाएँ बताती हैं कि केवल सख़्त नीतियाँ पर्याप्त नहीं हैं। कानून-व्यवस्था का वास्तविक अर्थ है—अपराध की रोकथाम, त्वरित न्याय, और नागरिकों का भरोसा।
आज उत्तर प्रदेश एक ऐसे मोड़ पर है जहाँ सरकार को यह साबित करना होगा कि कानून का राज केवल अपराधियों के खिलाफ़ सख़्ती नहीं, बल्कि आम नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी भी है। अलिगढ़ के शिक्षक की हत्या केवल एक अपराध नहीं, बल्कि यह याद दिलाने वाली घटना है कि कानून-व्यवस्था का मूल्यांकन भाषणों से नहीं, ज़मीनी सुरक्षा से होता है। यदि सरकार इस भरोसे को मजबूत कर पाती है, तभी उसके दावे इतिहास में टिक पाएँगे।