अमेरिका : इस्लामवाद बनाम स्वतंत्रता और तुलसी गबार्ड का बयान

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पूनम शर्मा
एक असामान्य लेकिन निर्णायक वक्तव्य

अमेरिकी राजनीति में शायद ही कभी ऐसा होता है कि कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता इतनी स्पष्टता से किसी वैचारिक खतरे का नाम ले—वह भी तब, जब वह विचारधारा धर्म से जुड़ी हुई मानी जाती हो। तुलसी गबार्ड का यह कहना कि “इस्लामवादी विचारधारा अमेरिका की स्वतंत्रता और सुरक्षा के सामने सबसे बड़ा दीर्घकालिक खतरा है”—सिर्फ़ एक बयान नहीं, बल्कि अमेरिकी सार्वजनिक विमर्श में एक ठोस हस्तक्षेप है।

यह वक्तव्य इसलिए भी वैश्विक स्तर पर चर्चा में है क्योंकि गबार्ड ने एक साथ दो रेखाएँ खींच दीं—एक ओर आम धार्मिक नागरिक, दूसरी ओर एक कट्टर वैचारिक ढांचा। आज के दौर में, जब किसी भी आलोचना को तुरंत ‘इस्लामोफोबिया’ कहकर खारिज कर दिया जाता है, यह अंतर स्पष्ट करना अपने-आप में एक राजनीतिक जोखिम है।

धर्म नहीं, विचारधारा—यही केंद्रीय बिंदु

गबार्ड ने अपने कथन में बार-बार यह स्पष्ट किया कि उनका निशाना इस्लाम धर्म या आम मुसलमान नहीं हैं। उनका विरोध इस्लामवाद से है—एक ऐसी राजनीतिक-धार्मिक विचारधारा से जो अपने अनुयायियों को यह सिखाती है कि लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहुलतावाद उनके विश्वास के शत्रु हैं।

यही वह बिंदु है जिसे अक्सर सार्वजनिक बहस में जानबूझकर धुंधला कर दिया जाता है। धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है, जबकि इस्लामवाद एक राजनीतिक परियोजना है—जिसका लक्ष्य सत्ता, नियंत्रण और वैचारिक वर्चस्व है। गबार्ड का बयान इसी अंतर को फिर से राष्ट्रीय चेतना में लाने की कोशिश करता है।

अमेरिकी संविधान और इस्लामवादी चुनौती

अमेरिका का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता और कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। लेकिन इस्लामवादी विचारधारा—जैसा कि गबार्ड संकेत करती हैं—इन मूल्यों के साथ मूलतः टकराव में है।

यह विचारधारा आलोचना को ‘ईशनिंदा’ मानती है, असहमति को अपराध और स्वतंत्र सोच को खतरा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था उस विचारधारा के साथ सह-अस्तित्व में रह सकती है, जो स्वयं लोकतंत्र को अस्वीकार करती हो?

गबार्ड का बयान इसी संवैधानिक तनाव की ओर इशारा करता है—जहाँ सहिष्णुता के नाम पर असहिष्णु विचारों को खुली छूट मिल जाती है।

9/11 के बाद भी अधूरी बहस

9/11 के हमलों के बाद अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध छेड़ा, लेकिन वैचारिक स्तर पर वह बहस कभी पूरी नहीं हुई। सुरक्षा तंत्र मज़बूत हुआ, निगरानी बढ़ी, सैन्य हस्तक्षेप हुए—पर यह प्रश्न अधर में रहा कि उस आतंक का वैचारिक स्रोत क्या है?

गबार्ड का कथन इसी अधूरी बहस को फिर से जीवित करता है। वह कहती हैं कि यह खतरा न तो केवल ‘शॉर्ट टर्म’ है और न ही केवल हिंसक घटनाओं तक सीमित। यह एक लॉन्ग-टर्म आइडियोलॉजिकल थ्रेट है—जो धीरे-धीरे समाज के भीतर भय, आत्म-संशोधन (self-censorship) और वैचारिक दबाव पैदा करता है।

भय का माहौल और अभिव्यक्ति की आज़ादी

गबार्ड जिस “डर और चुप्पी” की बात करती हैं, वह आज अमेरिका के कई शैक्षणिक संस्थानों, मीडिया प्लेटफॉर्म्स और सार्वजनिक मंचों पर महसूस की जा सकती है। किसी भी इस्लामवादी हिंसा या कट्टरता पर सवाल उठाना अक्सर करियर-जोखिम बन जाता है।

यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, क्योंकि लोकतंत्र सवालों से जीवित रहता है—डर से नहीं। जब विचारधाराओं की आलोचना असंभव बना दी जाए, तब कट्टरता को खाद-पानी अपने-आप मिलने लगता है।

वैश्विक संदर्भ में गबार्ड का बयान

यह बयान केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है। यूरोप, मध्य-पूर्व और एशिया के कई देश इसी वैचारिक चुनौती से जूझ रहे हैं। फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले, ब्रिटेन में शरिया-समर्थक नेटवर्क, और अन्य लोकतांत्रिक देशों में बढ़ता आत्म-संकोच—यह सब एक साझा वैश्विक पैटर्न की ओर संकेत करता है।

गबार्ड ने इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाकर यह स्पष्ट किया कि यह समस्या किसी एक देश या समुदाय की नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की सामूहिक रक्षा का प्रश्न है।

साहस या राजनीतिक आत्महत्या?

आज की अमेरिकी राजनीति में इस तरह का बयान देना आसान नहीं। पहचान-आधारित राजनीति के इस दौर में गबार्ड का यह रुख उन्हें आलोचना, गलत व्याख्या और हमलों के केंद्र में ला सकता है। फिर भी, यही वह बिंदु है जहाँ कई लोग उनके साहस की सराहना कर रहे हैं।

उनका कथन लोकप्रियता के लिए नहीं, बल्कि एक असहज सत्य को सामने रखने का प्रयास लगता है—और शायद इसी कारण यह बयान दुनिया भर में गूंज रहा है।

निष्कर्ष: बहस से भागना समाधान नहीं

तुलसी गबार्ड का बयान किसी समुदाय के विरुद्ध नहीं, बल्कि एक वैचारिक चुनौती के विरुद्ध चेतावनी है। लोकतंत्र की रक्षा केवल हथियारों से नहीं, बल्कि वैचारिक स्पष्टता से होती है।

यदि अमेरिका और अन्य लोकतांत्रिक देश इस्लामवादी विचारधारा पर खुलकर, ईमानदारी से और संवैधानिक मूल्यों के भीतर चर्चा नहीं करेंगे, तो चुप्पी खुद सबसे बड़ा खतरा बन जाएगी। गबार्ड ने उसी चुप्पी को तोड़ने का काम किया है—अब यह समाज और राजनीति पर निर्भर है कि वह इस बहस को कितनी गंभीरता से आगे बढ़ाता है।

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