पहचान का बुखार: जब शक ही सबसे बड़ा सबूत बन जाए

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पूनम शर्मा 
देश का माहौल इन दिनों ऐसा है कि हर खबर एक नए “संदेह ” को जन्म दे देती है। कहीं “अत्यधिक पढ़ा-लिखा डॉक्टर” जो मुसलमान है पकड़ा गया, तो कहीं “हिजाब पहनी डॉक्टर” चर्चा में आ गई। तर्क वही पुराना—अगर पहले कोई डॉक्टर अपराधी निकला था, तो अगला डॉक्टर भी शक के दायरे में रहेगा। अगर एक बार किसी ने धार्मिक प्रतीक पहना और वह गलत निकला, तो अगली बार प्रतीक ही अपराध का प्रमाण बन जाएगा। यह भी सच है आज तक इस संदेह की पुष्टि होती आई है  है—जाँच  की झंझट थोड़ी कम हो जाती है , दिमाग पर बोझ कम, और सोशल मीडिया पर यदि चीख पुकार मचती है तो वह भी कहानी  के लिए और हजारों की संख्या में हमदर्द भी  तुरंत पैदा हो जाते हैं ।

बिहार में नियुक्ति पत्र देने का एक औपचारिक दृश्य में एक हिजाब उतरने का दृश्य क्या सामने आया, हंगामा तैयार।  नियुक्ति पत्र  के रूप में  कहीं देश की , राष्ट्र की सुरक्षा से कोई समझौता तो नहीं कर रहे ?। एक डॉक्टर—जो आज काम जॉइन करने जा रही थी—खबर बन गई, क्योंकि उसकी पहचान “डॉक्टर” से ज़्यादा किसी और रूप में एक जानलेवा घटना की याद दिला रही थी  । अब अनजाने में  यह वही चश्मा है जिससे देश में हर दूसरा चेहरा “संभावित” हो जाता है—संभावित अपराधी, संभावित देशद्रोही, संभावित खतरा। ऐसा हो गया है इसमें कौन जिम्मेदार है ?

यह व्यंग्य इसलिए नहीं कि सुरक्षा गैर-ज़रूरी है। सुरक्षा ज़रूरी है—बेहद ज़रूरी। लेकिन सवाल यह है कि सुरक्षा का मतलब क्या शक का होना  सर्वव्यापी राज है? क्या अब हम हर शिक्षक को इसलिए संदेह में नहीं रख रहे हैं  कि किसी समय कोई शिक्षक कट्टरपंथी निकला तो ? हर इंजीनियर को इसलिए घेरने पर बाध्य हैं कि किसी  मजहबी इंजीनियर ने कभी साज़िश की? हर छात्र को इसलिए घूरें कि किसी मजहबी छात्र ने कभी गलती की ? लेकिन ऐसी मानसिकता का बनना और इसका जिम्मेदाए कौन है ?

दिल्ली के मुस्लिम  “डॉक्टर आतंकवादी” इसलिए याद दिलाए जाते हैं । पर याद यह भी दिलाइए कि वह पकड़े गए क्योंकि सबूत थे और  इसलिए कि वे डॉक्टर थे। अब यह याद यह भी रखने वाली बात है  कि हज़ारों मजहबी  डॉक्टर रोज़ जान बचाते हैं किसकी ? यह अब सोचने वाली बात है ।

हमारे दौर का सबसे बड़ा आविष्कार शायद “पहचान-आधारित जाँच ” है। इसमें समय नहीं लगता, प्रशिक्षण नहीं चाहिए, और कानून की किताब खोलने की ज़रूरत भी नहीं। बस एक फोटो, एक हेडलाइन, और निष्कर्ष तैयार। फिर वही सवाल—“देखना ज़रूरी था।” किसे? क्यों? किस अधिकार से?
अगर देखने से ही सच मिल जाता, तो अदालतों की जगह आईना घर होते।

यह देश कानून से चलता है—कम से कम किताबों में। कानून कहता है: व्यक्ति दोषी तब तक नहीं, जब तक दोष सिद्ध न हो। मगर सार्वजनिक बहस कहती है: व्यक्ति संदिग्ध तब तक है, जब तक वह हमारे संदेहों में हो । यह अंतर ही आज की बेचैनी की जड़ है।

कुछ घटनाएँ इतना सफल होती हैं कि  हम पहचान को इतना बड़ा बना देते हैं कि काम छोटा पड़ जाता है। डॉक्टर की योग्यता, सेवा-नियम, नियुक्ति प्रक्रिया—सब पीछे। आगे रहता है “हम क्या सोचते हैं।” और सोच अगर डर से बनी हो, तो फैसला भी डर का ही होता है। अब यह उन कुकृत्य करने वालों के निर्धारित लक्ष्यों के आधार पर होता है ।

मुसलमान आतंकवाद वास्तविक खतरा है—इसे कम मत आंकिए। और इस आतंकवाद से लड़ाई संस्थाओं, खुफिया तंत्र, जाँच  और न्याय से नहीं जीती जाती है; कपड़ों, नामों और प्रतीकों से  इसका संबंध इन्होंने ही जोड़ा है । हम प्रतीकों से भी लड़ने को बाध्य होते  हैं, तो असली खतरा हँसते हुए निकल जाता है—क्योंकि वह जानता है कि शोर किसी और दिशा में है।

देश का माहौल सुविधाजनक नहीं है—यह सच है। पर माहौल को असुविधाजनक डर नहीं, समाज के वे लोग ही लापरवाह फैसले बनाते हैं। जब हर किसी मजहबी को “कोई भी हो सकता है” कहकर संदिग्ध ठहराया  जा सकता  है, तब भरोसा टूटता है। और भरोसा टूटे समाज में सुरक्षा भी कमजोर पड़ती है—क्योंकि सूचना विश्वास से आती है, भय से नहीं।

तो आइए,  विवेक को बोलने दें। पहचान देखिए, पर पहचान से  सोच समझ कर फैसला  कीजिए। जाँच पहले कीजिए । कितनी सुरक्षा बढ़ा पाएँगे  ?क्या हर व्यक्ति के साथ एक पुलिसवाला या सेना का जवान सुरक्षा के लिए रहे ? क्या यह उन लोगों का दायित्व नहीं जो एक साथ एक ही आवाज में इस प्रकार के कामों को अंजाम देते हैं ?  क्योंकि अंत में, आतंकवाद एक बहुत  बड़ा खतरा जो  समाज में होता है जो अपने ही नागरिकों को नुकसान पहुँचाता है  ढंके रूप में होता  है—और दोषी का  सबूत बाद में ढूंढता है।

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