अमेरिका : जब नीति भ्रम से चलती है

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

पूनम शर्मा
अमेरिका की नई सुरक्षा रणनीति को पढ़ते समय ऐसा लगता है मानो किसी नीति दस्तावेज़ से ज़्यादा कोई मंत्र-पुस्तिका हाथ लग गई हो—एक ऐसी कल्पना कि अगर शब्द सही चुन लिए जाएँ, तो दुनिया की अराजकता अपने आप शालीन हो जाएगी। जैसे अस्थिरता से भरी वैश्विक राजनीति को सिर्फ “नियम-आधारित व्यवस्था” कह देने से वह सचमुच नियमों में बंध जाएगी।

लेकिन इतिहास और वर्तमान—दोनों—हमें बार-बार यह याद दिलाते हैं कि सुरक्षा रणनीति में भ्रम  जितना  आकर्षक लगता  है, उतना  ही खतरनाक भी  है। वह भ्रम जिसमें यह मान लिया जाता है कि इच्छाएँ, घोषणाएँ या नैतिक दावे—वास्तविक शक्ति, भू-राजनीति और ज़मीनी परिस्थितियों की जगह ले सकते हैं। अमेरिका की नई सुरक्षा नीति में यही भ्रम झलकता है—मानो यह विश्वास कर लिया गया हो कि अगर अमेरिका “सही मूल्यों” की बात करता रहे, तो बाकी दुनिया अपने टकराव, महत्वाकांक्षाएँ और आक्रामकता खुद छोड़ देगी।

लेकिन दुनिया किसी सभ्य सेमिनार की तरह नहीं चलती। अमेरिका का विरोधाभास

एक ओर अमेरिका यह स्वीकार करता है कि दुनिया “अधिक खतरनाक, अधिक अनिश्चित और अधिक प्रतिस्पर्धी” हो चुकी है। दूसरी ओर, उसकी रणनीति यह मानकर चलती है कि संवाद, गठबंधन और आदर्शवादी घोषणाएँ ही इन खतरों को संतुलित कर देंगी।

यहाँ एक बुनियादी विरोधाभास है। अगर दुनिया सचमुच इतनी अस्थिर है, तो क्या केवल नैरेटिव्स और घोषणाएँ पर्याप्त हैं? या फिर कठोर शक्ति, दीर्घकालिक तैयारी और असहज निर्णय भी लेने होंगे?

यूक्रेन युद्ध, मध्य-पूर्व की आग, चीन की आक्रामकता और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं का टूटना—ये सब संकेत देते हैं कि वास्तविक दुनिया किसी मंत्र से नहीं, बल्कि रणनीतिक दृढ़ता से चलती है।

भारत की स्थिति:

यही वह बिंदु है जहाँ भारत अमेरिका से अलग खड़ा दिखाई देता है। भारत के लिए सुरक्षा कोई सैद्धांतिक बहस नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की चुनौती है। एक ओर जलवायु परिवर्तन से उपजा जल संकट और आपदाएँ ,दूसरी ओर वैश्विक व्यापार की अनिश्चितता ,और तीसरी ओर सीमाओं पर वास्तविक सैन्य दबाव—चीन और पाकिस्तान दोनों से भारत के पास यह सुविधा नहीं है कि वह यह माने कि “व्यवस्था अपने आप संतुलित हो जाएगी।” भारत की रणनीति इसलिए अधिक व्यावहारिक रही है—चाहे वह आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन हो, बहु-ध्रुवीय कूटनीति हो या फिर सीमाओं पर ठोस सैन्य तैयारी।

आदर्शवाद बनाम यथार्थ

अमेरिका की सुरक्षा नीति में आदर्शवाद का बोझ इतना भारी है कि यथार्थ कई बार दब जाता है। लोकतंत्र बनाम तानाशाही की द्वंद्वात्मक भाषा अच्छी लगती है, लेकिन जब उसी लोकतंत्र का सहयोगी सऊदी अरब या किसी अन्य असहज साझेदार के साथ काम करना पड़ता है, तो यह नैरेटिव खुद ही लड़खड़ा जाता है। भारत ने शायद यह समझ लिया है कि दुनिया को “अच्छे” और “बुरे” के खानों में बाँटना रणनीति नहीं, बल्कि सुविधा है। वास्तविक कूटनीति उन धूसर क्षेत्रों में काम करती है जहाँ नैतिकता और हित अक्सर टकराते हैं।

सुरक्षा मंत्र नहीं, अनुशासन माँगती  है सुरक्षा कोई इच्छा-पत्र नहीं होती। यह एक अनुशासन है—लंबे समय तक चलने वाला, थकाने वाला और कई बार अलोकप्रिय भी। अमेरिका की समस्या यह नहीं कि उसके पास शक्ति की कमी है, बल्कि यह है कि वह अब भी यह मानना चाहता है कि शक्ति का प्रयोग किए बिना ही परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। यह सोच उस दौर में शायद काम करती थी जब अमेरिका निर्विवाद रूप से एकमात्र महाशक्ति था। आज नहीं।

भारत के लिए निहितार्थ

भारत के लिए सबसे बड़ा सबक यही है कि वह जादुई सोच से दूरी बनाए रखे—चाहे वह पश्चिमी नैरेटिव हो या किसी भी वैश्विक ध्रुव का दबाव।

भारत को अपनी सुरक्षा नीति को इन तीन आधारों पर टिकाए रखना होगा:

यथार्थवादी आकलन – खतरे जैसे हैं, वैसे ही स्वीकार करना

स्वतंत्र निर्णय क्षमता – किसी और की रणनीति का उप-उत्पाद न बनना

दीर्घकालिक तैयारी – तात्कालिक तालियों से ज़्यादा भविष्य की स्थिरता पर ध्यान

निष्कर्ष

जब सुरक्षा रणनीति भ्रम वाली  सोच से संचालित होती है, तो वह कागज़ पर सुंदर दिख सकती है, लेकिन संकट के समय बिखर जाती है। अमेरिका की नई सुरक्षा नीति इसी जोखिम से जूझ रही है।

भारत के लिए संदेश साफ़ है—इस दुनिया में कोई मंत्र नहीं है जो अराजकता को अपने आप शांत कर दे। यहाँ सिर्फ वही देश टिकते हैं जो वास्तविकताओं को बिना सजावट स्वीकार करते हैं और उसी के अनुसार अपनी शक्ति, नीति और संकल्प को गढ़ते हैं। और शायद यही अंतर है—मंत्रों से बनी सुरक्षा और मेहनत से बनी सुरक्षा के बीच।

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.