पूनम शर्मा
उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी को आखिरकार नया अध्यक्ष मिल गया है—पंकज चौधरी। नाम नया नहीं है, लेकिन भूमिका बेहद अहम है। 2027 के विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है और ऐसे समय में संगठन के शीर्ष पर बदलाव सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत होता है।
WTM पॉडकास्ट के ताज़ा एपिसोड में यही सवाल उठाया गया—क्या नया अध्यक्ष पार्टी के निष्क्रिय होते कैडर को फिर से ज़मीन पर उतार पाएगा, या यह बदलाव भी कागज़ों तक सीमित रह जाएगा?
क्यों पंकज चौधरी?
पंकज चौधरी की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जा रही है कि वे किसी गुट, लॉबी या अंदरूनी खेमे से नहीं जुड़े हैं। यूपी बीजेपी लंबे समय से गुटबाज़ी से जूझती रही है—कभी संगठन बनाम सरकार, कभी क्षेत्रीय गुट, कभी जातिगत समीकरण।
ऐसे में एक ऐसा चेहरा लाना जो सबके बाहर हो, एक तरह से “रीसेट बटन” दबाने की कोशिश है। पार्टी के अंदर यह उम्मीद है कि चौधरी किसी एक धड़े के पक्ष में झुकाव नहीं दिखाएंगे और फैसले अपेक्षाकृत निष्पक्ष होंगे।
उनका स्वभाव भी आक्रामक नहीं बल्कि शांत, संवादशील और संगठनात्मक बताया जा रहा है—जो मौजूदा समय में बीजेपी नेतृत्व को ज़्यादा मुफ़ीद लगता है।
सबसे बड़ी समस्या: निष्क्रिय कैडर
लेकिन असली संकट चेहरे का नहीं, संगठन की ज़मीन पर मौजूदगी का है। सबसे चौंकाने वाली बात सामने आई, वह है वोटर लिस्ट से करीब 4 करोड़ नामों का कटना, जिनमें से अनुमानतः 80–90 प्रतिशत बीजेपी समर्थक बताए जा रहे हैं। इससे भी गंभीर बात यह कि पार्टी का कैडर इस पूरे SIR (Special Intensive Revision) प्रक्रिया के दौरान लगभग निष्क्रिय रहा।
हालात इतने बिगड़े कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को खुद संगठन की बैठक में कार्यकर्ताओं से कहना पड़ा कि वे ज़मीन पर उतरें और लोगों की मदद करें। यह स्थिति 2007–2010 के दौर की याद दिलाती है, जब बीजेपी सत्ता से बाहर थी। फर्क बस इतना है कि आज पार्टी सत्ता में है—और फिर भी कैडर गायब है।
सत्ता में रहते हुए संगठन क्यों ढीला पड़ा?
यह सवाल बेहद असहज है, लेकिन ज़रूरी भी। सत्ता में आने के बाद कई जगहों पर यह भावना बनी कि “अब सब अपने-आप हो जाएगा।” जनप्रतिनिधि प्रशासन में उलझ गए, कार्यकर्ता हाशिये पर चले गए, और संगठनात्मक संवाद कमजोर होता गया।
जब कोई समस्या आई—जैसे वोटर लिस्ट—तो ज़मीनी नेटवर्क सक्रिय ही नहीं था।
कुर्मी फैक्टर और सामाजिक समीकरण
पंकज चौधरी की नियुक्ति को कुर्मी समुदाय से जोड़कर भी देखा जा रहा है। यह वही वर्ग है जहाँ बीजेपी को पिछले कुछ चुनावों में झटका लगा है और जिसे समाजवादी पार्टी लगातार साधने की कोशिश कर रही है।
लेकिन सिर्फ जातीय संतुलन से बात नहीं बनेगी। सवाल यह है कि क्या नया अध्यक्ष सामाजिक प्रतिनिधित्व को संगठनात्मक ऊर्जा में बदल पाएगा, या यह भी एक प्रतीकात्मक कदम बनकर रह जाएगा।
क्या कैबिनेट और संगठन में बड़े बदलाव होंगे?
केवल अध्यक्ष बदलने से काम नहीं चलेगा। कैबिनेट में फेरबदल, ज़िला और मंडल स्तर पर संगठनात्मक पुनर्गठन और निष्क्रिय नेताओं को साइडलाइन करना—ये सब अब टाले नहीं जा सकते।
अगर पार्टी 2027 को गंभीरता से ले रही है, तो यह समय सर्जरी का है, पट्टी लगाने का नहीं।
समाजवादी पार्टी क्या सही कर रही है?
दिलचस्प बात यह है कि विपक्ष, खासकर समाजवादी पार्टी, संगठनात्मक रूप से ज़्यादा सक्रिय दिख रही है। बूथ स्तर पर संवाद, जातीय संतुलन, और मुद्दों को पकड़ने की कोशिश—SP इन क्षेत्रों में बढ़त बनाती नज़र आ रही है।
हालाँकि SP के पास भी चुनौतियाँ हैं—नेतृत्व की सीमाएँ, कानून-व्यवस्था पर भरोसे की कमी—लेकिन ज़मीनी सक्रियता में वह फिलहाल आगे दिखती है।
निष्कर्ष: बदलाव की शुरुआत या बस एक नाम?
पंकज चौधरी की नियुक्ति बीजेपी के लिए अवसर भी है और परीक्षा भी। अगर वे निष्क्रिय कैडर को फिर से सक्रिय कर पाए, संगठन में संवाद बहाल कर पाए और ज़मीनी समस्याओं को प्राथमिकता दे पाए—तो यह बदलाव ऐतिहासिक हो सकता है।
लेकिन अगर यह सिर्फ एक नाम भर रह गया, तो 2027 का रास्ता बीजेपी के लिए पहले से कहीं ज़्यादा कठिन हो सकता है।
अब सवाल यही है—क्या संगठन सच में जागेगा, या फिर अलार्म को एक बार और स्नूज़ कर दिया जाएगा?