पूनम शर्मा
भारतीय लोकतंत्र के विशाल प्रांगण में अक्सर यह बहस छिड़ती रही है कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत का संविधान दो विपरीत ध्रुव हैं? वैचारिक विरोधियों द्वारा अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि संघ की विचारधारा और संवैधानिक मूल्य अलग-अलग दिशाओं में चलते हैं। किंतु, यदि हम वर्तमान सामाजिक परिदृश्य और संघ के सेवा कार्यों का सूक्ष्म विश्लेषण करें, तो एक भिन्न तस्वीर उभरती है।
अंतर्विरोध का भ्रम और वैचारिक सत्य
भारतीय सार्वजनिक विमर्श में एक लंबे समय से यह धारणा स्थापित करने का प्रयास किया गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत का संविधान दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़े हैं। वैचारिक संकीर्णता के कारण अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि संघ की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा संविधान के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे से मेल नहीं खाती। किंतु, यदि हम वर्तमान भारत के सामाजिक परिवर्तनों और संघ के राष्ट्रव्यापी सेवा कार्यों का गहराई से विश्लेषण करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संघ और संविधान एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक ही ध्येय पथ के राही हैं। संविधान जिस ‘आदर्श भारत’ का खाका खींचता है, संघ समाज को संस्कारित कर उसी आधारशिला को मजबूत कर रहा है।
‘व्यक्ति निर्माण’ से ‘संवैधानिक नागरिक’ तक का सफर
किसी भी देश का संविधान केवल कागजों पर लिखी इबारत नहीं होता, उसकी सफलता उस देश के नागरिकों के चरित्र पर निर्भर करती है। संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने स्पष्ट कहा था कि यदि संविधान का उपयोग करने वाले लोग बुरे होंगे, तो संविधान अंततः बुरा ही सिद्ध होगा। संघ का मूल कार्य ‘व्यक्ति निर्माण’ है। शाखा पद्धति के माध्यम से संघ एक ऐसे अनुशासित, चरित्रवान और राष्ट्रभक्त नागरिक को गढ़ता है, जो संविधान के भाग 4(A) में वर्णित ‘मौलिक कर्तव्यों’ के प्रति स्वतः प्रेरित होता है। जब संघ का स्वयंसेवक सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास और मानवता की सेवा का संकल्प लेता है, तो वह वास्तव में एक आदर्श ‘संवैधानिक नागरिक’ की भूमिका ही निभा रहा होता है।
बंधुत्व और समरसता: एक ही सिक्के के दो पहलू
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘बंधुत्व’ (Fraternity) को विशेष महत्व दिया गया है। यह बंधुत्व केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि समाज के आंतरिक जुड़ाव का मंत्र है। संघ इसे ‘सामाजिक समरसता’ के रूप में व्यवहार में उतारता है। डॉ. अंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके नीचे सामाजिक लोकतंत्र का आधार न हो। संघ आज जातिगत भेदभाव को मिटाकर ‘एक मंदिर, एक श्मशान और एक कुआं’ के लक्ष्य पर काम कर रहा है। यह प्रयास संविधान के अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) को समाज के अंतिम छोर तक पहुँचाने की दिशा में एक मौन क्रांति है।
कर्व्य बोध: अधिकारों के साथ राष्ट्रीय उत्तरदायित्व
अक्सर आधुनिक लोकतंत्रों में सारा जोर ‘अधिकारों’ पर होता है, लेकिन संविधान निर्माताओं ने अधिकारों के साथ कर्तव्यों के संतुलन की भी कल्पना की थी। संघ समाज को संस्कारित करते हुए यह बोध कराता है कि ‘स्व’ की उन्नति राष्ट्र की उन्नति में ही निहित है। स्वदेशी का भाव हो, मातृभाषा का सम्मान हो या पर्यावरण संरक्षण—संघ के ये सभी अभियान संविधान की उस मूल भावना को पुष्ट करते हैं जो भारत की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा के लिए नागरिकों को आह्वान करती है। जब समाज संस्कारित होता है, तो वह कानून के डर से नहीं, बल्कि कर्तव्य के भाव से संविधान का सम्मान करता है।
कल्याणकारी राज्य और अंत्योदय का लक्ष्य
संविधान के ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्व’ एक कल्याणकारी राज्य की कल्पना करते हैं, जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय सुलभ हो। संघ के आनुषंगिक संगठन जैसे ‘सेवा भारती’, ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ और ‘विद्या भारती’ आज देश के दुर्गम क्षेत्रों में वही कार्य कर रहे हैं जिनकी जिम्मेदारी संविधान ने राज्य को सौंपी थी। सुदूर जनजातीय क्षेत्रों में वनवासियों को उनके संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक करना और उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ना—यह कार्य संविधान की मंशा के अनुरूप ही है। संघ के लाखों स्वयंसेवक आपदा के समय बिना किसी भेदभाव के राहत कार्यों में जुट जाते हैं, जो ‘नर सेवा ही नारायण सेवा’ के संस्कार को संवैधानिक सेवा भाव से जोड़ता है।
विविधता में एकता: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और संवैधानिक ढांचा
आलोचक अक्सर संघ के ‘हिंदू राष्ट्र’ की संकल्पना को संविधान के विरुद्ध बताते हैं, लेकिन यहाँ यह समझना आवश्यक है कि संघ के लिए ‘हिंदू’ एक सांस्कृतिक पहचान है, न कि कोई संप्रदायिक गुट। यह वही संस्कृति है जिसे संविधान के मूल प्रति के चित्रों में (जैसे राम दरबार, भगवान बुद्ध और गुरु गोविंद सिंह के चित्र) स्थान दिया गया है। भारत की विविधता को सहेजने के लिए संविधान ने जो संघीय ढांचा प्रदान किया है, संघ का सांस्कृतिक सूत्र उसे भावनात्मक एकता प्रदान करता है। बिना सांस्कृतिक एकता के, संवैधानिक प्रावधान केवल यांत्रिक ढांचे बनकर रह जाते हैं। संघ समाज को यह संस्कार देता है कि विविधताएं हमें अलग नहीं करतीं, बल्कि वे एक ही वृक्ष की विभिन्न शाखाएं हैं।
निष्कर्ष: पूरकता ही भविष्य का आधार
यह विश्लेषण सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है कि संघ और संविधान अलग-अलग राह के राही नहीं हैं। संविधान यदि भारत का ‘मस्तिष्क’ है जो नियम और व्यवस्था तय करता है, तो संघ उसकी ‘धमनी’ है जो समाज में उन संस्कारों का रक्त प्रवाह सुनिश्चित करता है जिससे लोकतंत्र जीवित रहता है।
संविधान निर्माताओं ने जिस भारत की कल्पना की थी—जहाँ समता हो, न्याय हो और बंधुत्व हो—उस स्वप्न को साकार करने के लिए केवल कानून पर्याप्त नहीं हैं, समाज का संस्कारित होना भी अनिवार्य है। संघ आज वही खाद-पानी देने का कार्य कर रहा है जिससे संविधान का कल्पवृक्ष फलीभूत हो सके। आने वाले समय में, जैसे-जैसे समाज इन संस्कारों को आत्मसात करेगा, संघ और संविधान के बीच का कल्पित भेद समाप्त होता जाएगा और एक ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ का उदय होगा।