पूनम शर्मा
उत्तर प्रदेश और बंगाल की हालिया सियासत में एस.आई.आर. (S.I.R – Statistical Identification of Residents) एक ऐसा शब्द बनकर उभरा है, जिसे लेकर पक्ष-विपक्ष के अपने-अपने तर्क हैं।
सियासत और परिभाषाएँ
हर राजनैतिक दल अपनी सुविधानुसार इस ‘हाथी’ (डेटा) को परिभाषित कर रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह कहना कि कटे हुए नामों में 85% भाजपा के शहरी वोटर्स हैं, एक बड़ी राजनैतिक गुगली है। इसके दो मायने निकलते हैं: पहला, भाजपा यह जताना चाहती है कि वह चुनावी शुद्धिकरण के लिए अपने वोट बैंक की कुर्बानी देने से भी पीछे नहीं हट रही। दूसरा, यह उन विपक्षी आरोपों की हवा निकालने की कोशिश है जिनमें कहा जा रहा था कि केवल अल्पसंख्यकों के वोट काटे जा रहे हैं।
विपक्ष का डर: आंकड़ों की बाजीगरी या हकीकत?
अखिलेश यादव का 3 करोड़ से शुरू होकर 5 करोड़ तक पहुँच जाना और फिर आजमगढ़ जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में शिकायत दर्ज कराना, उनकी घबराहट और रणनीति दोनों को दर्शाता है। विपक्षी खेमे का यह तर्क कि “बीजेपी और चुनाव आयोग मिलकर अल्पसंख्यकों के वोट काट रहे हैं,” ध्रुवीकरण की राजनीति को नया धार दे रहा है।
अगर 4 करोड़ वोट कटे हैं, तो क्या सड़कों पर कोई शोर है? बिहार में भी लाखों नाम कटे, लेकिन क्या लोग बाहर आकर यह कह रहे हैं कि “मैं ज़िंदा हूँ और मेरा नाम काट दिया गया”? असल में, डेटा का दोहराव (Duplicate entries) और पलायन कर चुके लोगों के नाम हटाना एक तकनीकी प्रक्रिया है, जिसे राजनैतिक रंग देकर जनता को डराया जा रहा है।
भाजपा वोटर की ‘आराम-तलबी’ और योगी सरकार का भरोसा
वोटर का ‘कॉम्प्लेन्सी’ (Complacency) यानी अति-आत्मविश्वास। अनुपम जी और बाबा रामदास की यह बात गौर करने लायक है कि शहरों में भाजपा का वोटर इतना आश्वस्त है कि वह वोटर लिस्ट में अपना नाम चेक करने की जहमत भी नहीं उठाता। उसे लगता है कि “योगी जी हैं तो सब ठीक ही होगा।”
यही वह ‘आराम-तलबी’ है जो चुनावों में घातक सिद्ध होती है। 2024 के लोकसभा नतीजों का जिक्र करते हुए यह सही कहा गया कि “400 पार” के नारे ने कार्यकर्ताओं को घर पर बिठा दिया। एस.आई.आर. के बहाने अब भाजपा शायद अपने उसी सुस्त वोटर को झकझोरने की कोशिश कर रही है।
बंगाल का ‘बक्सा’ और ममता की काट
बंगाल की स्थिति उत्तर प्रदेश से बिल्कुल अलग और जटिल है। बंगाल में असली एस.आई.आर. तभी होगा जब सरकार बदलेगी, वहाँ की जमीनी हकीकत को बयां करता है। आरोप है कि वहां सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करके घुसपैठियों के फर्जी दस्तावेज तैयार किए जा रहे हैं। जब राज्य की पुलिस ही पासपोर्ट वेरिफिकेशन कर रही हो, तो चुनाव आयोग के लिए उन दस्तावेजों की प्रमाणिकता जांचना टेढ़ी खीर है।
टीएमसी कैडर का व्यवहार,सत्ता के खिसकने का डर और नए ठिकाने (भाजपा) की तलाश का संकेत है।
निष्कर्ष: सुधार की कड़वी दवा
एस.आई.आर.55 साल पुरानी घुसपैठ और फर्जी वोटिंग की समस्या एक-दो साल में ठीक नहीं होगी। इसमें कम से कम 10-20 साल लगें
यह साफ है कि देश में एक ‘शुद्धिकरण’ की प्रक्रिया शुरू हुई है। जहाँ विपक्ष इसे अपनी ‘अस्तित्व की लड़ाई’ मानकर विरोध कर रहा है, वहीं सत्ता पक्ष इसे ‘राष्ट्रहित’ बता रहा है। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती उस ‘आराम-तलब’ वोटर की है, जो टीवी पर बहस तो देखता है पर पोलिंग बूथ तक जाने में आलस करता है। एस.आई.आर. सफल तभी होगा जब वह केवल कागज पर नाम न काटे, बल्कि लोकतंत्र में ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की शुचिता को वापस लाए।