पूनम शर्मा
आज जब हवाई यात्रा “इकोनॉमी”, “बिज़नेस” तक सिमट चुकी है, तब यह कल्पना करना कठिन है कि भारत में कभी उड़ान भरना अपने आप में शाही अनुभव हुआ करता था। यह वह दौर था जब विमान केवल एक परिवहन साधन नहीं, बल्कि रुतबे, प्रतिष्ठा और औपनिवेशिक सत्ता का प्रतीक थे।
भारत में व्यावसायिक विमानन की कहानी की शुरुआत अक्टूबर 1932 में होती है, जब जे.आर.डी. टाटा ने कराची से बॉम्बे के जुहू एयर स्ट्रिप तक भारत की पहली व्यावसायिक उड़ान भरी। इसके कुछ ही महीनों बाद, अविभाजित भारत में कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय एयर सेवाएं शुरू हुईं। इन्हीं में एक नाम था—इंडियन ट्रांस-कॉन्टिनेंटल एयरवेज़, जिसने भारतीय आकाश को मध्य-पूर्व, यूरोप और लंदन से जोड़ने का साहसिक प्रयास किया।
औपनिवेशिक भारत और ‘लक्ज़री’ की परिभाषा
1930 के दशक में हवाई यात्रा आम जनता के लिए नहीं थी। यह सुविधा मुख्यतः ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों, उच्च नौकरशाही और अत्यंत धनी वर्ग के लिए आरक्षित थी। लंबी रेल या स्टीमर यात्राओं की तुलना में हवाई यात्रा तेज़ तो थी ही, लेकिन उससे भी अधिक यह सत्ता और विशेषाधिकार का संकेत थी।
इस मानसिकता को 1933 में लिखे गए एक पत्र में साफ देखा जा सकता है, जिसमें इंडियन ट्रांस-कॉन्टिनेंटल एयरवेज़ के बुकिंग एजेंट ने गृह सचिव से आग्रह किया कि अधिकारी अपने दौरों के लिए हवाई सेवा का उपयोग करें। यह केवल सुविधा का प्रस्ताव नहीं था, बल्कि औपनिवेशिक शासन की एक नई ‘स्टेटस सिंबल’ संस्कृति का संकेत था।
कराची से रंगून तक: उड़ान का भूगोल
इंडियन ट्रांस-कॉन्टिनेंटल एयरवेज़ की घरेलू सेवा कराची से रंगून तक फैली थी, जिसमें जोधपुर, दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, कलकत्ता और अkyab (आज का सित्वे) जैसे प्रमुख पड़ाव शामिल थे। जोधपुर इस नेटवर्क का केंद्रीय बिंदु था, जहाँ यात्रियों को रात बितानी होती थी।
दिलचस्प है कि जोधपुर का हवाई अड्डा स्वयं एक रियासती प्रयास था—महाराजा उम्मेद सिंह द्वारा 1920 के दशक में स्थापित। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय रियासतें भी इस नई तकनीक को आधुनिकता और शक्ति के प्रतीक के रूप में देख रही थीं।
किराया, सुविधा और शाही अनुभव
कराची से रंगून तक का टिकट 630 रुपये का था—जिसमें होटल में ठहराव, रात्रिभोज, स्थानीय परिवहन और टिप्स तक शामिल थे। वापसी टिकट पर 20% की छूट दी जाती थी। तुलना करें तो उस समय यह राशि एक आम भारतीय की वर्षों की आय के बराबर थी।
लंदन से रंगून की यात्रा आठ दिनों में पूरी होती थी, जिसमें विमान और रेल दोनों का संयोजन था—लंदन, पेरिस, इटली के ब्रिंडिसी, एथेंस, अलेक्ज़ेंड्रिया, काहिरा, गाज़ा, बग़दाद, बसरा, खाड़ी के कई पड़ाव और अंततः कराची। यह यात्रा केवल दूरी तय करना नहीं थी, बल्कि साम्राज्य की भौगोलिक निरंतरता को महसूस करना था।
नियम, वजन और अनुशासन
आज के ‘एक्सेस बैगेज’ विवाद उस दौर के नियमों के सामने तुच्छ लगते हैं। यात्रियों को उनके शरीर के वजन तक के आधार पर सामान ले जाने की अनुमति दी जाती थी। औसतन 75 किलो वजन वाले यात्री को 25 किलो सामान मुफ्त मिलता था। बच्चों तक को तौला जाता था, लेकिन उनके लिए अलग सामान की अनुमति नहीं थी।
यात्रियों को टीकाकरण प्रमाणपत्र साथ रखने पड़ते थे, और यह चेतावनी भी दी जाती थी कि किसी भी देश द्वारा क्वारंटीन लगाए जाने पर कंपनी जिम्मेदार नहीं होगी। फोटोग्राफी, हथियार, वायरलेस उपकरण—सब पर सख्त नियंत्रण था। यह बताता है कि हवाई यात्रा केवल आराम नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी सुरक्षा व्यवस्था का हिस्सा भी थी।
नई सभ्यता का संकेत
1933 में ऑस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन टेलीग्राफ ने इन विमानों की प्रशंसा करते हुए लिखा कि उनकी विशालता, शांति और आराम ने उन्हें “डी-लक्स एयर ट्रैवल” बना दिया है। वर्दीधारी स्टूअर्ड, गर्म भोजन, और उष्णकटिबंधीय परिस्थितियों के अनुकूल केबिन—यह सब उस समय अकल्पनीय था।
धीरे-धीरे ब्रिटिश अधिकारियों के साथ भारतीय उद्योगपति और महाराजा भी इन उड़ानों का हिस्सा बनने लगे। हालांकि समुद्री जहाज़ विलासिता में आगे थे, लेकिन विमान गति और प्रतिष्ठा का नया प्रतीक बन चुके थे।
युद्ध, अंत और विरासत
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1940 में लंदन-रंगून सेवा निलंबित कर दी गई। विमानों को रॉयल इंडियन एयर फोर्स के लिए उपयोग में लिया गया। युद्ध के बाद इंडियन ट्रांस-कॉन्टिनेंटल एयरवेज़ दोबारा उड़ान नहीं भर सका।
लेकिन इसकी विरासत अमिट रही। इसी नींव पर भारत में अंतरराष्ट्रीय विमानन का भविष्य बना—हालाँकि आज की तेज़, सीधी और भीड़भाड़ वाली उड़ानों में वह शाही ठहराव, होटल की रातें और साम्राज्य की चमक कहीं खो चुकी है।
यह परिवर्तन केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सामाजिक भी है—जहाँ उड़ान अब विशेषाधिकार नहीं, बल्कि आवश्यकता बन चुकी है। लेकिन इतिहास हमें याद दिलाता है कि कभी आकाश भी चुनिंदा लोगों का था।