बांग्लादेश संकट: चुनाव, आतंक और सत्ता की खींचतान

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पूनम शर्मा
एक देश, कई मोर्चे

बांग्लादेश इस समय एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ सत्ता-संघर्ष, आतंरिक सुरक्षा संकट, अंतरराष्ट्रीय दबाव और आर्थिक अनिश्चितता एक-दूसरे में उलझ गए हैं। जो तस्वीर उभरती है, वह किसी एक घटना की नहीं, बल्कि महीनों से चल रहे उस उबाल की है जिसमें राजनीतिक दल, सेना, कट्टरपंथी नेटवर्क और विदेशी हित—सब एक साथ सक्रिय दिखाई देते हैं। मुहम्मद यूनस जो एक कठपुतली हैं उनके अब जाने के दिन आ गए ऐसा लगता है । भारत एवं अन्य देशों से बढ़ते दबाव भी इस बात को दर्शाते हैं कि बंगलादेश की स्थिति अब और भी खराब होने वाली है ।

टार्गेटेड हत्याएँ और खौफ का माहौल

देश के अलग-अलग हिस्सों—ढाका, चटगाँव, कॉक्स बाजार—में सुनियोजित, टार्गेटेड हत्याओं की एक श्रृंखला चल रही है  है। होटल के कमरे से लेकर भीड़भाड़ वाले बाजार तक, हमले ऐसे किए गए मानो हमलावरों को पहले से सटीक जानकारी हो कि बैठक कहाँ चल रही है, कौन किस सीट पर बैठेगा। मोटरसाइकिल से आए हमलावर, खिड़की से की गई फायरिंग, और घंटों तक एम्बुलेंस न पहुँचना—ये सब एक ऐसे सिस्टम की ओर इशारा करते हैं जो या तो पंगु है या दबाव में चुप।

राजनीतिक दल और सड़कों की राजनीति

अवामी लीग और उसके विरोधी खेमें—जमात-ए-इस्लामी, बीएनपी—के बीच सड़क पर टकराव, पत्थरबाज़ी और प्रतीकात्मक स्थलों पर हमले की कोशिशें माहौल को और विषाक्त बना रही  हैं। ‘बंगबंधु’ की प्रतिमा को नुकसान पहुँचाने की कोशिश और उसके बाद की प्रतिक्रिया बताती है कि राजनीति अब प्रतीकों और भावनाओं के युद्ध में बदल चुकी है। इसके बाद कई इलाकों में दलों की सक्रियता घटती दिख रही है ।

सेना की भूमिका: निर्णायक लेकिन संकोची

सेना की भूमिका सबसे जटिल है। एक ओर वह आतंरिक सुरक्षा को लेकर निर्णायक स्वर में बोलती है—कि आंतरिक, बाह्य सुरक्षा और विदेश नीति पर अंतिम निर्णय वही करेगी—तो दूसरी ओर राजनीतिक प्रक्रिया में सीधे हस्तक्षेप से बचती भी दिख रही  है। चुनाव की तारीख पहले दिसंबर/जुलाई से खिसककर फरवरी तय होना, इसी दबाव-राजनीति का परिणाम माना जा रहा है। अंतरिम सरकार की चर्चा, ‘एडवाइज़र’ मॉडल और संवैधानिक अस्पष्टताएँ—ये सब सेना के कंधों पर बढ़ते बोझ की कहानी कहते हैं।

अंतरराष्ट्रीय दबाव और आर्थिक फंदा

आईएमएफ की किस्तें चुनाव से जोड़ दी गई हैं। संदेश साफ है—राजनीतिक स्थिरता के बिना आर्थिक राहत नहीं। ऊर्जा भुगतान, विदेशी निवेश, और लंबित दावे (जैसे बिजली परियोजनाओं के भुगतान) सरकार की क्षमता को सीमित कर रहे हैं। इस आर्थिक फंदे में सरकार के पास विकल्प कम हैं और समय भी।

भारत-बांग्लादेश आयाम: व्यापार से सुरक्षा तक

भारत के साथ रेल, एयर और व्यापारिक मार्ग—जो बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की धमनियाँ हैं—इस अस्थिरता से प्रभावित होते दिखते हैं। सीमा-पार आवाजाही, बीबीएस/बीएसएफ जैसे संपर्क तंत्र, और शरणार्थी/मतदाता सूची से जुड़े सवाल, दोनों देशों के लिए संवेदनशील हैं। यह भी स्पष्ट है कि चुनावी कैलेंडर का तालमेल—फरवरी में बांग्लादेश और मार्च में भारत—राजनीतिक गणनाओं को प्रभावित करता है।

कट्टरपंथ, नेटवर्क और ‘अदृश्य हाथ’

विभिन्न आतंकी/कट्टरपंथी नेटवर्क, विदेशी कड़ियाँ और खुफिया हलचल हो रही हैं  । तुर्की, पश्चिम एशिया, और दक्षिण एशिया के नामों के साथ यह संकेत उभरता है कि स्थानीय संघर्षों में बाहरी हित भी सक्रिय हैं। ड्रोन जैसे साधनों का जिक्र इस आशंका को मजबूत करता है कि तकनीक और सूचना-लीक ने हिंसा को अधिक सटीक और घातक बना दिया है।

नागरिक जीवन: डर, भ्रम और अविश्वास

विश्वविद्यालयों से लेकर बाजारों तक—नागरिक समाज असमंजस में है। अफवाहें तेज़ हैं, भरोसा कमजोर। मतदाता सूचियों में गड़बड़ियाँ, उम्र/पहचान से जुड़े विरोधाभास और कानूनी प्रक्रियाओं की जटिलता लोकतांत्रिक विश्वास को चोट पहुँचा रही है। लोग पूछते हैं—क्या चुनाव भयमुक्त होंगे?

निष्कर्ष: आगे का रास्ता

निष्कर्ष निकलता है, वह कठोर है—बांग्लादेश को चुनाव चाहिए, लेकिन उससे पहले न्यूनतम सुरक्षा और संवैधानिक स्पष्टता भी उतनी ही जरूरी है। सेना, राजनीतिक दल और अंतरराष्ट्रीय भागीदारों को यह समझना होगा कि केवल तारीख तय कर देना पर्याप्त नहीं। यदि टार्गेटेड हिंसा, आर्थिक दबाव और विदेशी दखल पर लगाम नहीं लगी, तो चुनाव परिणाम स्थिरता नहीं, बल्कि नए विवादों को जन्म दे सकते हैं। देश के सामने चुनौती यही है—लोकतंत्र को बचाते हुए सुरक्षा और संप्रभुता को कैसे संतुलित किया जाए।

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