बंगाल में शिक्षा राजनीति की भेंट : ऐसे में राष्ट्रपति की संवैधानिक जिम्मेदारी
पश्चिम बंगाल: शिक्षा पर नियंत्रण की जंग और संवैधानिक मर्यादा
पूनम शर्मा
भारत के संघीय ढांचे में राज्यपाल का पद केंद्र और राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण सेतु का कार्य करता है, जो अक्सर राजनीतिक तनाव का केंद्र भी बनता रहा है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक बार फिर यह तनाव उस वक्त चरम पर पहुँच गया, जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने तृणमूल कांग्रेस (TMC) सरकार के दो महत्वपूर्ण संशोधन विधेयकों को खारिज कर दिया। ये विधेयक राज्य के विश्वविद्यालयों में कुलाधिपति (Chancellor) के पद से राज्यपाल को हटाकर मुख्यमंत्री को नियुक्त करने का प्रस्ताव रखते थे। राष्ट्रपति का यह निर्णय, जिसे ममता बनर्जी प्रशासन के लिए एक “बड़ा संवैधानिक झटका” माना जा रहा है, राज्य के उच्च शिक्षा संस्थानों पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करने के सरकार के विवादास्पद प्रयास पर निर्णायक विराम लगाता है।
राष्ट्रपति के इस अस्वीकार ने वर्तमान कानूनी ढांचे को बरकरार रखा है, जिसके तहत राज्यपाल राज्य-सहायता प्राप्त और प्रायोजित विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति बने रहेंगे। यह घटना न केवल पश्चिम बंगाल की आंतरिक राजनीति के लिए, बल्कि राज्यपालों की भूमिका और शैक्षणिक स्वायत्तता की संवैधानिक सीमाओं को लेकर राष्ट्रीय विमर्श के लिए भी दूरगामी महत्व रखती है।
‘कुलपति बनाम कुलाधिपति’ की राजनीतिक लड़ाई
पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा लाए गए संशोधन विधेयकों में ‘वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी लॉ’ और ‘आलिया विश्वविद्यालय’ से जुड़े कानून शामिल थे। इन विधेयकों का मुख्य उद्देश्य कुलाधिपति के पद से राज्यपाल को हटाना और उनकी जगह मुख्यमंत्री को स्थापित करना था। राज्य सरकार ने इसके पक्ष में तर्क दिया था कि मुख्यमंत्री एक निर्वाचित प्राधिकारी हैं और उन्हें विश्वविद्यालयों के कामकाज में अधिक अधिकार होना चाहिए। उनका कहना था कि यह कदम राज्यपाल की शक्तियों को सीमित करेगा और शैक्षणिक तथा प्रशासनिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में तेज़ी लाएगा।
दरअसल, इस विवाद की जड़ें 2022 तक जाती हैं, जब राज्य मंत्रिमंडल ने पहली बार मुख्यमंत्री को कुलाधिपति नियुक्त करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। सरकार का दावा था कि यह कदम उच्च शिक्षा सुधारों को गति देने के लिए आवश्यक है। हालांकि, इस पहल ने तत्काल ही तीखी राजनीतिक और संवैधानिक बहस को जन्म दे दिया था। तृणमूल कांग्रेस ने लंबे समय से राजभवन पर राज्य के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया है, और इन विधेयकों को सीधे तौर पर उस शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश के रूप में देखा गया था।
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य और ‘आरक्षण’ का सिद्धांत
राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा इन विधेयकों को अस्वीकृत करना, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने की प्रक्रिया की पुष्टि करता है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल, डॉ. सी.वी. आनंद बोस ने 20 अप्रैल, 2024 को इन विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजा था। यह प्रक्रिया तब अपनाई जाती है जब राज्यपाल को लगता है कि विधेयक राज्य के उच्च न्यायालय की शक्तियों का हनन करते हैं, या वे संविधान के किसी प्रावधान के विरुद्ध हैं।
राजभवन से प्राप्त जानकारी के अनुसार, मौजूदा अधिनियम स्पष्ट रूप से राज्यपाल को “पदेन” (by virtue of office) कुलाधिपति के रूप में नामित करते हैं। विधेयकों में प्रस्तावित बदलावों को “स्थापित कानूनी और संवैधानिक ढांचे के साथ असंगत” माना गया। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, कुलाधिपति का पद विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता और अकादमिक मानकों को बनाए रखने के लिए एक ‘चेक एंड बैलेंस’ के रूप में कार्य करता है। राष्ट्रपति का फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि राज्य सरकार की विधायी शक्ति संवैधानिक सीमाओं से बंधी हुई है, और उच्च शिक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र में बदलाव करते समय संघीय संतुलन का सम्मान आवश्यक है। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि संवैधानिक पदों की भूमिका को केवल राजनीतिक सुविधा के लिए बदला नहीं जा सकता।
अतीत की प्रतिध्वनि और राजभवन-नबन्ना संघर्ष
बंगाल में राजभवन और नबन्ना (राज्य सचिवालय) के बीच तनातनी कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में यह अभूतपूर्व स्तर पर पहुँच गई है। पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ कार्यकाल के दौरान यह विवाद और भी गहरा गया था। धनखड़ ने TMC सरकार पर कुलपतियों की नियुक्ति में उनकी शक्तियों को दरकिनार करने का आरोप लगाया था। उन्होंने कथित तौर पर आरोप लगाया था कि 24 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति “कुलाधिपति की मंजूरी के बिना अवैध रूप से” की गई थी। यह विवाद राज्य में संवैधानिक प्रमुख और निर्वाचित प्रमुख के बीच लगातार तनाव का माहौल दर्शाता है।
विपक्ष, विशेष रूप से भाजपा और सीपीआई(एम) ने, इन संशोधनों का कड़ा विरोध किया था। उन्होंने ममता बनर्जी सरकार पर उच्च शिक्षा का राजनीतिकरण करने, संस्थागत स्वायत्तता को कमजोर करने और संवैधानिक जांच एवं संतुलन को कमतर आंकने का आरोप लगाया था। यह संघर्ष सिर्फ एक पद को लेकर नहीं है; यह इस बात को लेकर है कि शैक्षणिक संस्थाओं का नियंत्रण किसके पास रहेगा—क्या वे केंद्र द्वारा नियुक्त संवैधानिक पदाधिकारी के माध्यम से स्वायत्तता बनाए रखेंगे, या सीधे राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक नियंत्रण में आएंगे।
निष्कर्ष: संघीय ढांचे की चुनौती और शिक्षा की स्वायत्तता
राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों की अस्वीकृति ने फिलहाल बंगाल सरकार के महत्वाकांक्षी कदम को रोक दिया है और उच्च शिक्षा पर राज्यपाल के अधिकार को बहाल किया है। यह केंद्र द्वारा नियुक्त संवैधानिक कार्यालयों के माध्यम से संघीय ढांचे में एक आवश्यक नियंत्रण सुनिश्चित करने के सिद्धांत को मजबूत करता है। यह घटनाक्रम राज्यों और केंद्र के बीच शक्तियों के बंटवारे की नाजुकता को दर्शाती है।
यह ज़रूरी है कि शिक्षा, जो कि समवर्ती सूची का विषय है, राजनीति से ऊपर उठकर स्वायत्तता के सिद्धांतों पर चले। राष्ट्रपति का हस्तक्षेप यह याद दिलाता है कि राज्य सरकारें, भले ही वे बहुमत में हों, संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। अब जब राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस कुलाधिपति बने रहेंगे, तो यह देखना होगा कि राज्य सरकार और राजभवन विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक और अकादमिक सुचारू संचालन के लिए किस प्रकार सहयोग का मार्ग अपनाते हैं, क्योंकि अंतिम हित छात्रों और उच्च शिक्षा के भविष्य का है।