मासूम चेहरे, खतरनाक विचार: आधुनिक आतंकवाद की बदलती पहचान

जब हिंसा का चेहरा डरावना नहीं, बल्कि साधारण दिखता है

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पूनम शर्मा
किसी तस्वीर में एक युवा—साधारण कपड़े, शांत आंखें, चेहरे पर कोई उग्रता नहीं। उसे देखकर भय का एहसास नहीं होता। हम में से कोई भी ऐसे व्यक्ति के साथ खड़ा हो सकता है—बस में, दफ़्तर में, कॉलेज के गलियारों में। लेकिन आज के समय की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि आतंकवाद अब उस “पहचाने जाने वाले” डरावने चेहरे के साथ नहीं आता। वह साधारण दिखता है, शिक्षित हो सकता है, पेशेवर हो सकता है, और भीड़ में घुल-मिल सकता है। यही आधुनिक आतंकवाद की नई पहचान है।

क्या  किसी समुदाय, धर्म या वर्ग को दोषी ठहरा सकते हैं  ? यह उस खतरनाक प्रवृत्ति की पड़ताल है, जहाँ  विचारधारा—न कि चेहरा—हिंसा की असली पहचान बन चुकी है।

आतंक का नया चेहरा: ‘असामान्य’ नहीं, ‘सामान्य’

पिछले कुछ वर्षों में दुनिया भर से ऐसी घटनाएँ  सामने आई हैं जिनमें हमलावरों की बाहरी छवि ने लोगों को चौंकाया है। पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा, तकनीक से जुड़े युवा—जिनसे किसी भी समाज में उम्मीद की जाती है कि वे निर्माण करेंगे—वही विनाश के औज़ार बनते दिखे। यही वह बदलाव है जिसने सुरक्षा एजेंसियों और समाज—दोनों—को असहज किया है।

इस बदलाव का अर्थ यह नहीं कि शिक्षा या आधुनिकता आतंकवाद को जन्म देती है। बल्कि यह संकेत है कि कट्टरपंथ अब केवल गरीबी या अशिक्षा की उपज नहीं रहा। वह डिजिटल युग में, पहचान की उलझनों, अलगाव की भावना और वैचारिक दुष्प्रचार के जरिए पनप रहा है।

कल्पना से बाहर की हकीकत

हम अक्सर आतंकवाद की कल्पना किसी स्पष्ट “दुश्मन” के रूप में करते हैं—ऐसा व्यक्ति जो अलग दिखे, अलग बोले, अलग व्यवहार करे। लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। कई मामलों में हमलावर समाज के भीतर रहते हुए, उसी भाषा में बात करते हुए, उसी जीवन-शैली का हिस्सा बनकर कट्टर बनते हैं।

यही कारण है कि जब किसी अंतरराष्ट्रीय आयोजन या सार्वजनिक स्थल पर हमला होता है, तो तस्वीरों में दिखने वाला चेहरा समाज को झकझोर देता है। सवाल उठता है—“क्या हम पहचान ही नहीं पाए?” और शायद यही सबसे कठिन सच है: पहचान अब चेहरे से नहीं, विचारों से होती है।

मीडिया की भूमिका और भाषा की जिम्मेदारी

ऐसी घटनाओं के बाद मीडिया की भाषा और प्रस्तुति भी चर्चा में आती है। कहीं गुस्से में भरे शीर्षक होते हैं, कहीं आक्रोश से भरी शब्दावली। यह मानवीय प्रतिक्रिया है—मृत्यु और हिंसा के सामने क्रोध स्वाभाविक है। लेकिन पत्रकारिता की जिम्मेदारी यहीं सबसे कठिन हो जाती है।

किसी व्यक्ति के कृत्य के लिए पूरे समूह को संदिग्ध बनाना, या नफ़रत भरी भाषा का प्रयोग करना, संविधान के उस मूल भाव के विरुद्ध है जो समानता और गरिमा की बात करता है। भारत जैसे लोकतंत्र में—जहाँ अनुच्छेद 14 समानता की गारंटी देता है और अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता—भाषा संयम और तथ्यपरकता की माँग  करती है।

संविधान और सुरक्षा: संतुलन की चुनौती

राज्य का दायित्व है कि वह नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। लेकिन यह दायित्व संविधान के भीतर रहकर निभाया जाना चाहिए। आतंकवाद से लड़ाई केवल बंदूक या कानून से नहीं जीती जा सकती; यह विचारों की लड़ाई भी है।

यदि हम हर “अजनबी” को संदेह की नज़र से देखने लगें, तो समाज टूटता है। और टूटे हुए समाज में कट्टरपंथ के लिए जगह और बनती है। इसलिए सुरक्षा और स्वतंत्रता के बीच संतुलन—यही लोकतंत्र की असली परीक्षा है।

युवाओं की उलझन और कट्टरपंथ का जाल

आज का युवा वैश्विक है—इंटरनेट, सोशल मीडिया और त्वरित सूचनाओं के बीच जी रहा है। इसी स्पेस में कट्टरपंथी विचार भी पनपते हैं—सरल उत्तर, झूठी पहचान और “महान उद्देश्य” का भ्रम दिखाकर।

समस्या का समाधान केवल निगरानी नहीं, बल्कि संवाद, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर निवेश है। युवाओं को यह एहसास कराना कि असहमति लोकतंत्र का हिस्सा है, हिंसा उसका विकल्प नहीं।

निष्कर्ष: डर नहीं, विवेक की ज़रूरत

यह सच है कि आतंकवाद का चेहरा बदल रहा है। लेकिन इसका जवाब डर फैलाना नहीं हो सकता।  किसी मासूम चेहरे के पीछे छिपे “संभावित खतरे” की कल्पना करना अथवा  समाज को अविश्वास से भर देना इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता ।

आज ज़रूरत है विवेक की—कानून के राज की, संवैधानिक मूल्यों की, और उस पत्रकारिता की जो भावनाओं को भड़काने के बजाय सच को समझाए। क्योंकि अगर हम चेहरे से आतंक पहचानने लगे, तो हार पहले ही मान चुके होंगे। जीत तब होगी, जब हम विचारों को परास्त करेंगे—इंसानियत के साथ।

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