पूनम शर्मा
अचानक हमला और दहशत का मंजर
हाल ही में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि आतंकवाद किसी चेतावनी के बिना, सबसे सामान्य और खुशी के क्षणों को भी नरसंहार में बदल सकता है। जहां लोग उत्सव और सामान्य गतिविधियों में व्यस्त थे, वहीं अचानक हुई अंधाधुंध फायरिंग ने एक दर्जन से अधिक निर्दोष लोगों की जान ले ली। पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए एक हमलावर को मार गिराया और अन्य संदिग्धों को हिरासत में लिया, लेकिन नुकसान अपूरणीय था।
आतंकवाद की वैश्विक प्रकृति
यह हमला किसी एक देश या क्षेत्र तक सीमित घटना नहीं है। मुंबई, पुलवामा, मध्य-पूर्व, यूरोप और अब ऑस्ट्रेलिया जैसी घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि आधुनिक आतंकवाद एक वैश्विक नेटवर्क के रूप में काम करता है। अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में होने के बावजूद इन हमलों के उद्देश्य समान होते हैं—भय फैलाना, सामाजिक सौहार्द को तोड़ना और सरकारों की वैधता को चुनौती देना।
एक जैसी विचारधारा, अलग-अलग मोर्चे
आतंकी हमलों के पैटर्न पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि भले ही हमलावर अलग-अलग देशों से हों, लेकिन उनकी सोच, प्रतीक और लक्ष्य अक्सर एक जैसे होते हैं। यह एक संगठित वैचारिक ढांचा है, जो स्थानीय मुद्दों की आड़ में वैश्विक अस्थिरता फैलाने का काम करता है। यह केवल बंदूक उठाने वालों तक सीमित नहीं है, बल्कि उन विचारों तक भी फैला है जो हिंसा को वैचारिक समर्थन देते हैं।
आतंकवाद बनाम धर्म: एक जरूरी स्पष्टता
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आतंकवाद को किसी धर्म या समुदाय से जोड़ना न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि खतरनाक भी है। आतंकवाद किसी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि वह उसकी विकृत व्याख्या का उपयोग करता है। किसी पूरे समुदाय को दोषी ठहराना आतंकियों के एजेंडे को ही मजबूत करता है, क्योंकि उनका लक्ष्य समाज को बाँटना होता है।
सरकारों की जिम्मेदारी और नीति की चुनौती
हर आतंकी हमले के बाद निंदा के बयान आते हैं, लेकिन असली परीक्षा उसके बाद शुरू होती है। सरकारों को यह तय करना होता है कि वे केवल प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई करेंगी या जड़ों पर वार करेंगी। कट्टरपंथी संगठनों की फंडिंग, वैचारिक प्रचार और डिजिटल माध्यमों पर फैल रहे ज़हर को रोकना अब राष्ट्रीय सुरक्षा का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है।
सॉफ्ट कट्टरपंथ: अनदेखा खतरा
आज आतंकवाद केवल हथियारों के दम पर नहीं चलता। अकादमिक लेखन, सोशल मीडिया, भाषण और तथाकथित बौद्धिक विमर्श के जरिए हिंसा को वैध ठहराने की कोशिश की जाती है। यह ‘सॉफ्ट रैडिकलाइजेशन’ धीरे-धीरे समाज को असंवेदनशील बनाता है और हिंसा के लिए मानसिक जमीन तैयार करता है।
मीडिया और सार्वजनिक विमर्श की भूमिका
मीडिया की भूमिका इस पूरे परिदृश्य में बेहद अहम है। सनसनीखेज बहसें और सामूहिक आरोप न तो न्याय दिलाते हैं और न ही समाधान। जरूरत है तथ्य आधारित रिपोर्टिंग, संतुलित विश्लेषण और जिम्मेदार संवाद की, जिससे जनता को वास्तविक खतरे और उसके समाधान की समझ मिल सके।
अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अनिवार्यता
आतंकवाद सीमाओं को नहीं मानता, इसलिए उसका मुकाबला भी वैश्विक सहयोग से ही संभव है। खुफिया जानकारी साझा करना, आतंकी फंडिंग पर संयुक्त कार्रवाई और वैचारिक नेटवर्क पर अंतरराष्ट्रीय निगरानी—ये सभी आज की अनिवार्य जरूरतें हैं।
निष्कर्ष: मानवता के खिलाफ युद्ध
अंततः, यह हमला किसी एक देश पर नहीं, बल्कि पूरी मानवता पर हमला है। इसका जवाब भी सामूहिक, संतुलित और दृढ़ होना चाहिए। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन उसका इलाज स्पष्ट है—कठोर कानून, वैश्विक सहयोग और सामाजिक एकता। तभी इस दहशत के चक्र को तोड़ा जा सकता है।