अनुकंपा नौकरी पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

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पूनम शर्मा
उच्चतम न्यायालय का अनुकंपा नियुक्तियों को लेकर हालिया फैसला केवल एक कानूनी व्याख्या नहीं है, बल्कि यह सरकारी सेवा, संवैधानिक समानता और मानवीय सहानुभूति के बीच संतुलन को स्पष्ट करने वाला ऐतिहासिक निर्णय है। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि अनुकंपा के आधार पर एक बार नौकरी मिलने के बाद, उस नियुक्ति को आगे बढ़ाकर उच्च पद या पदोन्नति का दावा नहीं किया जा सकता। यह फैसला ऐसे समय आया है जब विभिन्न राज्यों और विभागों में अनुकंपा नियुक्तियों को लेकर असमान और विस्तारित व्याख्याएं सामने आ रही थीं।

अनुकंपा नियुक्ति की मूल भावना पर पुनर्पुष्टि

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अनुकंपा नियुक्ति की मूल भावना को दोहराया—यह व्यवस्था किसी को “विशेषाधिकार” देने के लिए नहीं, बल्कि कर्मचारी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उसके परिवार को तत्काल आर्थिक संकट से उबारने के लिए है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह कोई स्थायी सेवा अधिकार नहीं है, न ही इसका उद्देश्य सामान्य भर्ती प्रक्रिया को दरकिनार करना है।

यह टिप्पणी उन प्रवृत्तियों पर रोक लगाती है, जिनमें अनुकंपा नियुक्ति को धीरे-धीरे एक वैकल्पिक भर्ती चैनल या “फास्ट ट्रैक प्रमोशन” के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा था।

संवैधानिक समानता बनाम भावनात्मक तर्क

इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 से जुड़ा है, जो सभी नागरिकों को सरकारी नौकरियों में समान अवसर की गारंटी देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि यदि अनुकंपा नियुक्ति को आगे बढ़ाकर उच्च पदों तक पहुंचने का माध्यम बना दिया जाए, तो यह उन लाखों योग्य उम्मीदवारों के साथ अन्याय होगा जो प्रतियोगी परीक्षाओं और चयन प्रक्रियाओं से गुजरते हैं।

यह निर्णय भावनात्मक तर्कों के बजाय संवैधानिक तर्क को प्राथमिकता देता है। कोर्ट ने माना कि सहानुभूति प्रशासन का आधार नहीं हो सकती, विशेषकर तब जब वह समान अवसर के सिद्धांत को कमजोर करे।

“कभी न खत्म होने वाली दया” पर रोक

पीठ द्वारा प्रयुक्त “कभी न खत्म होने वाली दया” (endless compassion) की अवधारणा इस फैसले का केंद्रीय संदेश है। अदालत ने कहा कि अनुकंपा नियुक्ति एक सीमित राहत है, न कि आजीवन लाभ। एक बार नौकरी देकर राज्य अपना दायित्व पूरा कर देता है। इसके बाद उसी आधार पर बार-बार या ऊंचे पद के लिए मांग करना व्यवस्था को विकृत कर देता है।

यह टिप्पणी भविष्य में ऐसे सभी मामलों के लिए नजीर बनेगी, जहां अनुकंपा नियुक्ति को लगातार विस्तार देने की मांग की जाती है।

योग्यता बनाम प्रक्रिया

फैसले में एक अहम सवाल यह भी था कि यदि आश्रित व्यक्ति बाद में उच्च शैक्षणिक योग्यता प्राप्त कर ले, तो क्या वह ऊंचे पद का दावा कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने इसे सख्ती से खारिज किया। कोर्ट का तर्क था कि योग्यता अपने आप में पर्याप्त नहीं है, जब तक चयन की प्रक्रिया समान और प्रतिस्पर्धी न हो।

यह स्पष्ट संदेश है कि सरकारी सेवा में योग्यता तभी मान्य है जब वह निर्धारित भर्ती प्रक्रिया के माध्यम से सामने आए, न कि अनुकंपा जैसे अपवाद के जरिए।

तमिलनाडु मामले का व्यापक असर

तमिलनाडु सरकार की याचिकाओं पर आया यह फैसला केवल उस राज्य तक सीमित नहीं है। मद्रास हाई कोर्ट द्वारा सफाईकर्मी से जूनियर असिस्टेंट बनाने के निर्देश को रद्द करना, देशभर के हाई कोर्ट्स और ट्रिब्यूनलों के लिए एक स्पष्ट संकेत है कि अनुकंपा नियुक्ति की सीमाएं तय हैं।

इससे राज्यों को अपनी नीतियों की समीक्षा करनी पड़ेगी, क्योंकि कई राज्यों में अनुकंपा नियुक्तियों को लेकर अस्पष्ट या उदार दिशानिर्देश बने हुए हैं।

प्रशासनिक और सामाजिक प्रभाव

प्रशासनिक दृष्टि से यह फैसला सरकारी भर्ती व्यवस्था को अधिक पारदर्शी और न्यायसंगत बनाता है। इससे बैकलॉग प्रमोशन, कानूनी विवाद और असमानता के आरोप कम होंगे। सामाजिक स्तर पर यह संदेश जाता है कि सहानुभूति जरूरी है, लेकिन वह संविधान और मेरिट के ऊपर नहीं हो सकती।

हालांकि आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि यह फैसला कुछ परिवारों के लिए कठोर है, लेकिन दीर्घकाल में यह व्यवस्था की विश्वसनीयता और निष्पक्षता को मजबूत करता है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अनुकंपा नियुक्ति को उसके मूल उद्देश्य तक सीमित रखने का स्पष्ट और निर्णायक प्रयास है। यह मानवीय सहानुभूति और संवैधानिक समानता के बीच संतुलन स्थापित करता है। भविष्य में यह निर्णय सरकारी नौकरियों में अपवादों के दुरुपयोग पर प्रभावी रोक लगाएगा और यह सुनिश्चित करेगा कि अनुकंपा राहत रहे, अधिकार नहीं।

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